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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 48 समयपाहुड अथवा समयसार पर आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका लिखी, जिसमें बीच बीच में पद्यों का भी प्रयोग किया गया है। इस टीका को नाटकीय शैली में प्रस्तुत कर उसे नाटक का रूप दे दिया है। उन्होंने गद्य की सरल और कठिन दोनों शैलियों का प्रयोग किया है। बीच बीच में उदाहरणों का प्रयोग भी किया है। उनके पद्य, कलश संज्ञा से विभूषित किए जाते हैं। इन कलशों में अध्यात्म रस से सराबोर करने की शक्ति है। इन्हीं के आधार पर पं. बनारसीदास जी ने हिन्दी भाषा में समयसार कलश की रचना की। इन कलशों में स्वानुभूति भरी हुई है। उनके कलशों के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है उभयनयविरोधध्वंसिनी स्यात्पदांके जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनवमनय पक्षाक्षुण्णमीक्षंत एव ।। य एव मुक्त्वा नय पक्षपातं स्वरूगुप्ता निवसन्ति नित्यम्। विकल्पजालच्युत शान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति। मज्जन्तुनिर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः। आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोध सिन्धुः।। प्रमेयों को समझाने के लिए उन्होंने नय और प्रश्नोत्तर शैली का भी अवलम्बन लिया है। शब्दों की बीच बीच में व्युत्पत्तियाँ भी करते जाते हैं। अपनी बात को समझाने के लिए उन्होंने न्यायशैली का भी प्रयोग किया है। उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक वस्तु को समझाने हेतु वे प्रवचनसार की गाथा १०० की टीका में कहते हैं न खलुसर्गः संहारमन्तरेण, न संहारो वा सर्गमन्तरेण, न सृष्टिसंहारो स्थितिमन्तरेणं, न स्थितिः संहारमन्तरेण। य एव हि सर्गः स एव संहारः, य एव संहारः स एव सर्गः यावेव सर्गसंहारौ सैव स्थितिः, यैव स्थितिस्तावेव सर्गसंहाराविति। तथाहि य एव कुम्भस्य सर्गः स एव मृत्पिण्डस्य संहारः, भावस्य भावान्तराभावस्वभावेनावभासनात्। यौ च कुम्भपिण्डयोः सर्गसिंहरौ सैव मृत्तिकायाः स्थितिः, व्यतिरेकणामन्वयानतिक्रमणात्। यैव च मृत्तिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारी, व्यतिरेकमुखेनैवान्वयस्य प्रकाशनात्। यदि पुनर्नेदमेवमिष्येत तदान्यः सोन्यः संहारः अन्यास्थितिरायाति। तथा सति हि केवलं सर्ग मृगयमाणस्य कुम्भस्योत्पादनकारणाभावादभतिरेव भवेत् असदुत्पाद एववा। तत्र कुम्भस्याभवनौ सर्वेषामेवभावानामभवनिरेव भवेत्, असदुत्पोद वा व्योमप्रसवादीनामप्युत्पादः स्यात्। परवर्ती रचनाकारों को आचार्य अमृतचन्द्र ने विशेष रूप से प्रभावित किया है। इनमें आचार्य देवसेन, आ. अमितगति प्रथम आ. प्रभाचन्द्र, अमितगति द्वितीय, आचार्य जयसेन, आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य वादीभसिंह पद्मप्रभमल धारीदेव, मुनि रामसेन, ब्रह्मदेव आदि प्रमुख है। परवर्ती हिन्दी रचनाओं की अध्यात्म शैली के तो वे प्रमुख प्रेरणास्रोत में से एक हैं। जयसेनाचार्य - जयसेनाचार्य का समय १३वीं शताब्दी है। उन्होंने समयसार पर तात्पर्यवृत्ति नामक टीका लिखी है। टीका में खण्डान्वय द्वारा शब्दशः गाथाओं का अर्थ स्पष्ट किया है। अर्थ स्पष्ट करने के बाद उन्होंने गाथार्थ पर विशेष प्रकाश भी डाला है। नए अधिकार के प्रारंभ में उस
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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