SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 30 नहीं पूर्वबद्ध कर्मों को संयम और तप की साधना के द्वारा निर्जरित भी कर सकता है। संवर और निर्जरा की साधना मोक्ष की प्राप्ति में प्रमुख कारण है। इस साधना में अन्य कारणों के साथ जीव का पुरुषार्थ प्रधान कारण है। यही भगवान् महावीर के उपदेशों का सार भी है। अपने अशुभ भावों को शुभ में परिणत करने का कार्य आत्म-पुरुषार्थ के बिना संभव नहीं है। कर्मसिद्धान्त में पुरुषार्थ का स्थान - पुरुषार्थ से बद्ध कर्मों में भी परिवर्तन संभव है। यह परिवर्तन कर्म की निम्न अवस्थाओं में माना जाता है- उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा और संक्रमण। उद्वर्तना का अर्थ है- कों की स्थिति में वृद्धि और अनुभाग में तीव्रता लाना। अपवर्तना में कर्मो की स्थिति कम हो जाती है और विपाक मन्द पड़ जाते हैं। उदीरणा के द्वारा व्यक्ति बाद में उदय में आने वाले कमों को खींचकर समय से पहले ही उदय में लाकर खपा देता है। ये तीनों अवस्थाएँ जैन दर्शन में पुरुषार्थ को प्रतिपादित करती है। पुरुषार्थ द्वारा कर्मपरिवर्तन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है-संक्रमण। संक्रमण से अभिप्राय है कमों की उत्तर प्रकृतियों का परस्पर परिवर्तन। ये चारों अवस्थाएं जीव के पुरुषार्थ की द्योतक हैं।२८ उपर्युक्त विवेचित पुरुषार्थ के विभिन्न रूपों से यह सुस्पस्ट है कि जैनदर्शन में धर्म-पुरुषार्थ की प्रमुखता है और वही मोक्ष का साधन है। जैनदर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त में भी पुरुषार्थ की महत्त्व दिया गया है। सिद्धसेनसूरि ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म) एवं पुरुष के समुदाय को कार्य की उत्पत्ति में कारण स्वीकार किया है। जैनदर्शन में ये पांचों कारण उत्तरकाल में पंचकारणसमवाय अथवा पंचसमवाय के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। पंचकारण समवाय में हरिभद्र ने पुरिसे' शब्द के स्थान पर परिस किरियाओ' पद का प्रयोग किया है, जो पुरुषार्थ या पराक्रम का द्योतक है। इसका तात्पर्य है कि पुरुष अर्थात् आत्मा या जीव की क्रियाएं या कार्य ही जैनदर्शन के कारणवाद के संदर्भ में अभीष्ट हैं। उपासकदशांग में नियतिवाद का खण्डन करते हुए भगवान् महावीर ने कुम्भकार शकडाल के समक्ष स्पष्ट रूप से उत्थान, कर्म, बल, वीर्य स्वरूप पुरुषार्थ का महत्व स्पष्ट किया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में भी इनका उल्लेख हुआ है। अतः जैनदार्शनिकों ने पुरुषवाद का निरसन करके पुरुषकार या पुरुषार्थ को महत्त्व दिया है।२९ । जैन साधना पद्धति में पुरूष-क्रिया या पराक्रम का विशेष स्थान है। चारित्र धर्म हो या तप का आचरण सर्वत्र आत्म-पुरूषार्थ अपेक्षित है। संवर एवं निर्जरा की समस्त साधना में आत्म-उद्यम रूप पुरुषार्थ अपेक्षित है। पुरुषकार तो जीव का लक्षण भी है जो मोक्ष का भी साधन है। वीर्य का प्रतिपादन हो या संयम में पराक्रम का, साधना में अप्रमत्तता का विवेचन हो या परीषह-जय का, अपवर्तन करण का प्रसंग हो या संक्रमण करण का, सर्वत्र जैनदर्शन में आत्मपौरुष रूप पुरुषार्थ का महत्त्व स्थापित है। संदर्भ सूची: १. ज्ञानार्णव ३.४ उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तृतीय, पृष्ठ ७० २. णाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy