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________________ 29 जैनदर्शन में पुरुषार्थ का स्वरूप एवं उसकी महत्ता सम्यक्त्व पराक्रम : उत्तराध्ययन का एक अध्ययन - उत्तराध्ययन सूत्र का 'सम्यक्त्व पराक्रम धर्मश्रद्धा, संवेग-निर्वेद, गुरु-शुश्रूषा, सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, प्रतिलेखना, प्रायश्चित, क्षमापना, स्वाध्याय, वाचना, प्रतिपृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा, श्रुताराधना मन की एकाग्रता, संयम, तप, प्रत्याख्यान, वैयावृत्त्य, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, इन्द्रियनिग्रह, क्रोध-विजय, मान-विजय, माया-विजय, लोभ-विजय आदि साधनाओं के रूप में करणीय है। इस अध्ययन में साधना के इन विविध पहलुओं का लाभ भी बताया गया है, जिससे कोई भी साधना में प्रवृत्त हो सकता है। तप के रूप में पुरुषार्थ - जैनदर्शन में आत्म-पुरुषार्थ का सबसे सुन्दर निदर्शन तप साधना है। पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने का यह अमोघ उपाय है। प्रायः भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि कर्मों का फल भोग किये बिना उनसे मुक्ति नहीं मिलती। किन्तु, जैनदर्शन में पूर्वबद्ध कर्मों के यथाकाल उदय से पूर्व भी उदीरणा करके क्षय किया जा सकता है। कुछ कर्मों की स्थिति को कम किया जा सकता है उनकी फलदान शक्ति को अल्प किया जा सकता है। तपः साधना का इस सम्बन्ध में जैनदर्शन में अत्यन्त महत्त्व स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है- “भवकोडिसंचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जई"२७ अर्थात् करोड़ों भवों में संचित कर्मों को तप के द्वारा निर्जरित किया जा सकता है। यह पुरुषार्थ जीव की अनन्त शक्ति को जागृत करने में समर्थ है। पुरुषार्थ से ही कोई केवलज्ञानी बन सकता है और अष्ट कर्मों से रहित होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन सकता है। पराक्रम का एक रूप : अप्रमत्तता - आगमों में पदे-पदे जीव को प्रमाद रहित होने का ही उपदेश दिया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन में भगवान् ने अपने प्रमुख शिष्य गणधर गौतम को बार-बार कहा'समयं गोयम ! मा पमायए' अर्थात् हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। यह संदेश इस बात का सूचक है कि जीव को सदैव सजग रहकर कर्म-क्षय के लिए उद्यत रहना चाहिये। जीवन क्षणभंगुर है, अतः उसका उपयोग पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय में करना ही मेधावी पुरुष का लक्षण है। आचारांग सूत्र में अप्रमत्त होकर आत्मसाधना में संलग्न रहने का उपदेश दिया गया है“पमत्तस्स अत्थि भयं, अपमत्तस्सनत्थि भयं" अर्थात् जो प्रमाद युक्त है उसको भय है एवं जो अप्रमत्त है उसको किसी प्रकार का भय नहीं है। संवर एवं निर्जरा में पुरुषार्थ की उपयोगिता - नवीन कर्म का बन्ध न करने में मानव का वर्तमान पुरुषार्थ अत्यन्त उपयोगी है। वह चाहे तो संयम की साधना के साथ आस्रव के निरोध रूप संवर का आराधन कर सकता है। पूर्वबद्ध कर्म यथाकाल उदय में आते हैं। किन्तु जो उनके उदयकाल में राग-द्वेष से रहित होकर समभाव का अभ्यास करता है वह नवीन कर्मों के बंध को न्यून कर सकता है। यही
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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