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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 परिग्रह- त्याग के परिप्रेक्ष्य में कहा है-हे परमचक्षुषमान् पुरुष! तू पराक्रम कर। तम्हा अविमणे वीरे सारए समिए सहिते सदा जते।९ मुनि सदा अविमना, प्रसन्नमना, स्वारत, समित, सहित, वीर होकर संयमन करे। जाणित्तु दुक्खं पत्तेय सातं...... आयटुं सम्मं समणुवासेज्जासि त्ति बेमि।२० प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख अपना-अपना है, इसलिए जब श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की प्रज्ञान शक्ति हीन नहीं हुई है तब तक आत्महित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्न करना चाहिये। चारित्र धर्म : पुरुषार्थ का द्योतक - स्थानांग सूत्र में श्रुतधर्म और चारित्रधर्म के रूप में दो प्रकार के धर्म प्रतिपादित हुए हैं"दुविहे धम्मे पण्णत्ते तंजहा-सुयधम्मे चेव, चरित्त धम्मे चेय"२१ श्रुतधर्म ज्ञान का तथा चारित्र धर्म आचरण का द्योतक है। यह चारित्र धर्म पुरुषार्थ या पुरुषकार को ख्यापित करता है। चारित्र धर्म की सत्प्रेरणा देते हुए उत्तराध्ययन में कहा है किरियं च रोयए धीरे, अकीरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिट्ठी- सम्पन्ने, धम्म चर सुदुच्चरं।।२२ क्रिया अर्थात् सदाचरण में रुचि रखो और अक्रिया का त्याग करो। सम्यक् दृष्टि पूर्वक दुश्चर धर्म का आचरण करो। परीषह- जय में पुरुषार्थ - जैनधर्म में परीषहों को सहने का जो उपदेश दिया गया है, उसमें भी साधक के पुरुषार्थ का ही पक्ष प्रकट होता है। साधु के लिए २२ परीषह बताए गये हैं। जिनमें कुछ अनुकूल परीषह हैं और कुछ प्रतिकूल। दोनों ही प्रकार के परीषह साधक को साधना से डिगा सकते हैं। किन्तु जो इन परीषहों के उपस्थित होने पर समभाव पूर्वक आत्म-पौरूष (पुरुषार्थ) का प्रयोग करता है। वह पूर्वबद्ध कर्मों की तीव्रता से निर्जरा करता है। देव, मनुष्य और तिर्यच के द्वारा उपसर्ग दिए जाने पर भी साधु समत्व भावों का त्याग नहीं करता है तो वह निरन्तर मोक्ष-मार्ग में पराक्रम करता है। वीर्य के रूप में पुरुषार्थ - प्रत्येक जीव में पुरूषार्थ पराक्रम का वाचक वीर्य होता है। सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें 'वीर्य' अध्ययन में बाल-वीर्य और पण्डित वीर्य का विवेचन है। प्रमाद युक्त कर्म को बाल वीर्य तथा अप्रमादयुक्त अकर्म अथवा संयम-स्वरूप पराक्रम को पण्डितवीर्य कहा है।५ प्राणघातक, कषाय और राग-द्वेष को बढ़ाने वाले, पापजन्य जितने भी पराक्रम हैं, वे सभी सकर्मवीर्य या बालवीर्य हैं। अकर्म वीर्य में अध्यात्म बल (धर्मध्यानादि) से समस्त पाप प्रवृत्तियों, मन और इन्द्रियों को, दुष्ट अध्यवसायों तथा भाषा के दोषों को रोकने की प्रवृत्तियाँ समाहित हैं।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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