SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में पुरुषार्थ का स्वरूप एवं उसकी महत्ता पासिय आतुरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए- आचारांग १.३.१ सूत्र ०८१ पीड़ित प्राणियों को देखकर तू अप्रमादी होकर गमन कर। समयं गोयम! मा पमायए- उत्तराध्ययन, अध्याय १० है गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद मत कर। उपर्युक्त सभी आगम-वाक्य निर्विकल्प बनने का संदेश दे रहे हैं। जब तक संकल्पविकल्प रहेंगे तब तक अप्रमत्त अवस्था संभव नहीं है । अप्रमत्त हुए बिना कर्म विनाश और संयम में पराक्रम नहीं हो सकता। निर्विकल्प होकर ही कर्मबन्धन को समझा जा सकता है और तोड़ा जा सकता है अतः मोक्ष की सीढ़ी का यह महत्त्वपूर्ण सोपान है। 27 मोक्षमार्ग के रूप में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः सूत्र प्रतिपादित है अतः सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र हेतु कृतपुरुषार्थ का ही जीवन में महत्व है। पंच महाव्रतों का पालन पांच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप अष्ट प्रवचन माता का आराधन तथा जीवन पर्यन्त तीन करण- तीन योग से सामायिक की साधना धर्म-पुरुषार्थ का उत्कृष्ट रूप है। साधुओं के आचार पक्ष को लें तो वह पूर्ण रूप से धर्म-पुरूषार्थ को प्रतिविम्बित करता है। जैन साधु-साध्वी वाहनों का उपयोग नहीं करते, पदयात्रा करते हैं। स्वाध्याय और ध्यान ही उनकी दिनचर्या के प्रमुख अंग हैं। आहार आदि की गवेषणा वे शरीर यात्रा के लिए एवं संयम पालन में सुकरता के लिए करते हैं। प्रत्येक क्रिया में उनका विवेक जागृत रहना आवश्यक माना जाता है। किस प्रकार बोलना, जिस प्रकार वस्तुओं को उठाना और रखना तथा शौचादि के लिए किस प्रकार नियमों का पालन करना, सबका साध्वाचार में प्रतिपादन हुआ है। जीवों में भव्यत्वरूपी योग्यता भी बिना साधना के फलित नहीं होती। यही कारण है कि भव्यत्व स्वभाव वाले जीवों को भी पुरुषार्थ के बिना, न सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। और न ही केवलज्ञान आदि की जीवों के पुरुषार्थ के विभिन्न रूप जैन साहित्य में प्रतिपादित हैं। यथा संयम में पराक्रम उत्तराध्ययन सूत्र में चार दुर्लभ अंग चतुष्टय का वर्णन प्राप्त होता है चत्तारि परमंगाणि, दुलहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा संजममि य वीरियं ॥ १४ १. मनुष्यत्व २. धर्म-श्रवण ३. धर्म श्रद्धान ४. संयम में पराक्रम- ये चारों जीव को दुर्लभता से प्राप्त हाकेते हैं। इसी अध्ययन में दुर्लभ चतुष्टय में भी संयम में पराक्रम को सबसे दुष्कर प्रतिपादित किया गया है।" जिससे संयम में पराक्रम का महत्व जैन दृष्टि से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है। संयम में पराक्रम का फल अनास्रव के रूप में जीव को प्राप्त होता है। १५ संयम के स्थानांग सूत्र में चार प्रकार हैं- मन- संयम, वचन संयम, काय संयम और उपकरण-संयम। संयम के ये प्रकार पुरुषार्थ की व्यापकता को निरूपित कर रहे हैं। संयम में पराक्रम के लिए भगवान् ने अनेक स्थान पर पराक्रम का उपदेश देते हुए कहा है पुरिसा । परमचक्खू! विपरिक्कम । १८
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy