SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 क्योंकि उसको अनुभूत करने वाले इस जगत् में अत्यन्त अल्प जन हैं। संयोगवश आत्मा के स्वरूप को भलीभांति जानने वाले ज्ञानीजन मिल भी जाएं तो जीव उनका समागम नहीं करता, उनसे कुछ सीखने-समझने की कोशिश नहीं करता, यदि आगे होकर भी वे कुछ सुनायेंसमझायें तो उनकी बात पर ध्यान ही नहीं देता, इसलिए अनन्तकाल से संसार में भटक रहा है 26 अनन्त काल से जीव, संसार में संसरण मिथ्यात्व के कारण करता है । मिथ्यात्व अर्थात् अज्ञानता। प्रश्न उठता है अज्ञानता क्या है ? अज्ञानता पर-पदार्थो को इष्ट या अनिष्ट मानकर राग-द्वेष करना है। जीव स्व को विस्मृत कर पर में ही लगा रहता है पर-पदार्थों में जो अनुकूल लगता है उसमें इष्ट की कल्पना कर राग कर लेता है और जो प्रतिकूल लगता है उसमें अनिष्ट की कल्पना कर द्वेष कर लेता है। इष्ट- अनिष्टत्व पदार्थ का कोई गुण-धर्म नहीं है, मात्र जीव की कल्पना है, उसके पूर्व अनुभूत संस्कार हैं। यदि इष्ट-अनिष्टत्व वस्तु का गुणधर्म होता तो कोई एक वस्तु सबको इष्ट ही लगनी चाहिये और एक सबको अनिष्ट ही लगनी चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता, यहां तक कि एक ही वस्तु एक व्यक्ति को कभी इष्ट और कभी अनिष्ट मालूम हो सकती है। जैसे भूख लगने पर प्रिय लगने वाला सुस्वादु भोजन भूख-शमन होने पर अनिष्ट लगता है अतः इष्ट अनिष्टत्व जीव की झूठी कल्पनाएँ हैं। सर्वत्र सुख-दुःख का अथवा कषाय का कारण, वस्तु या स्थिति नहीं वरन् जीव कृत संकल्प-विकल्प हैं। यदि जीव चाहे तो इष्ट विकल्प को चुनकर स्वयं को सुखी बना ले और अनिष्ट का चयनकर दुःखी हो जाए। सुख-दुःख से परे वास्तविक आनन्द तो निर्विकल्प होने में है. जहाँ न किसी स्थित विशेष क े प्रति राग है और न द्वेष । यह स्थिति अभ्यास के द्वारा प्राप्त की जा सकती है। ३ हम पल-पल उलझे हैं या तो भूतकाल में घटी घटनाओं की स्मृति में या भविष्य की योजनाओं, इच्छाओं व चिंताओं में या फिर अन्य अनेक ऊल-जलूल विचारों में ये विचार या विकल्प किसी भी रूप में सार्थक नहीं, वर्तमान में ये अशान्ति देकर जाते हैं और भविष्य के लिए कर्म बन्धन मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य में सर्वप्रथम हमें इन विकल्पों की निरर्थकता को समझकर निर्विकल्प बनने का प्रयत्न करना होगा। इस निर्विकल्पता को लक्ष्य में रखकर ही पुरुषार्थ के लिए आगम वचन कहे गए हैं। यथा “अणुसासाणमेव परक्कमे, वीरेहिं सम्मं पवेदियं" - सूत्रकृतांग, १.२.१.९९ जिनेश्वर के द्वारा निरूपित अनुशासन में पराक्रम करो। “बुजिझज्ज तिउट्टेज्जा, बंधणं परिजाणिया”- सूत्रकृतांग, १.१.१.१. बन्धन को जानकर, बंधन को तोड़ो। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य- उत्तराध्ययन, २०.३७ आत्मा ही सुख और दुःख का कर्ता है तथा यही विकर्ता अर्थात् नाश करने वाला है।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy