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________________ जैनदर्शन में पुरुषार्थ का स्वरूप एवं उसकी महत्ता वे सम्यक् पुरुषार्थ अथवा धर्म पुरुषार्थ में सम्मिलित नहीं की जाती। उनका समावेश काम और अर्थ पुरुषार्थ में होता है। यद्यपि अर्थ और काम भी जैनदर्शन के अनुसार उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम स्वरूप पुरुषार्थ की अपेक्षा रखते हैं, तथापि उनमें किया गया उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पराक्रम भगवान् महावीर का उपदेष्टव्य नहीं है। इसलिए प्रसंगतः कहीं अर्थ और काम पुरुषार्थ के रूप में पुरुषकार की यत् किंचित चर्चा भले ही आ जाए, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति में उनके सहयोगी न होने के कारण जैनदर्शन में धर्म पुरुषार्थ का ही विशेष महत्त्व है। जैनदर्शन के गहन अध्येता पं. चैनसुखदास ने अनेक ग्रन्थों के आलोडन के पश्चात् अपने ग्रन्थ 'जैनदर्शनसार' में स्पष्ट कहा है- “आत्मनः परमहितप्रतिपादनं जैनदर्शनस्य प्रयोजनं, तस्य परमहितं तु मोक्षः” अर्थात् आत्मा के परमहित का प्रतिपादन जैनदर्शन का प्रयोजन है, आत्मा का परमहित मोक्ष प्राप्ति में है। इस पर 'अवन्तिका' टीका करते हुए डॉ. नरेन्द्र कुमार शर्मा लिखते हैं- “पुरुष जिसे चाहता है उसे पुरुषार्थ कहते हैं। समस्त प्राणी उत्कृष्ट सुख की चाहना करते हैं। धर्म, अर्थ तथा काम साक्षात् सुख न होकर सुख के साधन हैं और मोक्ष साक्षात् सुखस्वरूप है, अतः वही परम पुरुषार्थ है। मोक्ष में आत्मा के परमहित को अनुभूत कर ही भगवान् महावीर ने संयम में पराक्रम करने पर बल दिया। आज इस अनुभूति के अभाव के कारण ही मानव मोक्षोन्मुखी नहीं हो पा रहा है। यह प्रथम शताब्दी में रचित समयसार की निम्नांकित गाथा से पुष्ट होता है सुदपरिचिदाणुभूया सव्वस्स वि काम भोगबन्धकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स। काम, भोग और बंध की कथा तो संपूर्ण लोक ने बहुत बार सुनी है, उसका परिचय भी प्राप्त किया है और उनका अनुभव भी किया है, क्योंकि वह सर्वसुलभ है। परन्तु पर से भिन्न और स्व से अभिन्न आत्मा की कथा न कभी सुनी है, न उसका कभी परिचय प्राप्त किया है और न कभी उसका अनुभव ही किया है, क्योंकि वह सुलभ नहीं है। ___ काम शब्द से तात्पर्य स्पर्शन और रसनेन्द्रिय का विषय तथा 'भोग' से घ्राण चक्षु एवं श्रोत्र इन्द्रिय का विषय है। इस प्रकार काम-भोग कथा का अर्थ पंचेन्द्रिय विषयों की कथा से लिया जाता है। बंध का अभिप्राय प्रकृति, प्रदेश, स्थिति व अनुभाग-बंध तथा उसके फल में प्राप्त होने वाली नरकादि रूप चतुर्गति भ्रमण है। १९ इस लोक में समस्त जीव विषयों की तृष्णा रूपी दाह से पीड़ित हैं और उस दाह का शमन इन्द्रियों के रूपादि को परस्पर विषयों का ही उपदेश करते हैं। वे विषय- कषाय की चतुराई एक-दूसरे को बताते हैं, सिखाते हैं। पिता पुत्र को समझाता है कि पैसे कैसे कमाना, कैसे भोगना और पुत्र पिता को कहता है कि अब जमाना बदल गया है, पुरानी ईमान-धर्म की बातें अब नहीं चल सकतीं। अब तो खाओ-पीओ और मौज-उड़ाओ- इसी में सार है। इस प्रकार सभी अज्ञानी एक-दूसरे को भोग भोगने की प्रेरणा देते हैं। अतः काम, भोग और बंध की कथा जगत् में सर्वत्र सुलभ है, किन्तु आत्मा की कथा अत्यन्त दुर्लभ है,
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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