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________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 सर्वप्रथम दर्शनों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- भारतीय दर्शन और अभारतीय दर्शन (पाश्चात्य दर्शन)। जिन दर्शनों का प्रादुर्भाव भारतवर्ष में हुआ है वे भारतीय दर्शन हैं और जिन दर्शनों का प्रादुर्भाव भारतवर्ष के बाहर अर्थात् पाश्चात्य देशों (यूनान आदि) में हुआ है, उन्हें अभारतीय दर्शन कहा जाता है। भारतीय दर्शन भी दो भागों में विभक्त हो जाते हैं - १. वैदिक दर्शन- सांख्य, योग वेदान्त, मीमांसा, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन। २. अवैदिक दर्शन- जैन, बौद्ध तथा चार्वाक दर्शन। जैनदर्शन - जिस प्रकार विभिन्न दर्शनों के प्रवर्तक विभिन्न ऋषि-महर्षि हुए हैं, उस प्रकार जैनदर्शन का प्रवर्तक कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। जैन शब्द 'जिन' शब्द से बना है। 'जिन' शब्द का अर्थ है जो व्यक्ति ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों और रागद्वेषादि भावकों को जीतता है वह 'जिन' कहलाता है। कहा भी जाता है कि- “जयति कर्मारातीनिति जिनः” ऐसे 'जिन' के द्वारा उपदिष्ट धर्म तथा दर्शन को जैनधर्म और जैनदर्शन कहते हैं। प्रत्येक युग में चौबीस तीर्थकर होते हैं तथा वे अनादिकाल से चले आ रहे धर्म और दर्शन का प्रतिपादन करते हैं। वर्तमान युग में ऋषभनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों ने जैनधर्म तथा दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित 'तत्त्वार्थसूत्र' जैनदर्शन का आद्य सूत्रग्रंथ है। जैनदर्शन में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये सात तत्त्व बतलाए गए हैं। सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को मिलाकर नौ पदार्थ बतलाए गए हैं। जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल- ये छः द्रव्य माने गये हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय- ये आठ कर्म हैं। जीव के औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक- ये पांच भाव होते हैं। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये पांच परमेष्ठी होते हैं। अहिंसा, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये पांच व्रत हैं। जैनदर्शन में प्रत्यक्ष और परोक्ष को ही प्रमाण माना जाता है। जैनदर्शन में प्रत्येक आत्मा कर्मों का नाश करके परमात्मा अर्थात् ईश्वर बन सकता है। कहा भी है- “अप्पा सो परमप्पा” अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। जैनदर्शन में ईश्वर को इस सृष्टि का कर्ता नहीं माना जाता तथा वह न तो कभी अवतार लेता है और न कभी लौटकर आता है। जो आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय- इन चार घातिया कर्मो का नाश कर देता है वह केवली अथवा अरिहन्त कहलाता है। अरिहन्त अवस्था में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यइन चार अनन्त चतुष्टियों की प्राप्ति हो जाती है। कुछ काल बाद वही आत्मा शेष चार अघातिया कर्मों का नाश करके सिद्ध हो जाता है। सिद्धावस्था ही मोक्ष की अवस्था है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है। __जिस प्रकार दूध में से घी निकालने पर दुबारा नहीं मिलाया जा सकता, गेहूँ के दाने को भूनकर बोया नहीं जा सकता, तिल में से तेल निकालने के बाद दुबारा नहीं मिलाया जा सकता, स्वर्ण पाषाण में से एक बार सोना निकालने के बाद दुबारा नहीं मिलाया जा सकता; उसी प्रकार जो जीव एक बार मुक्त हो जाता है वह पुनः शरीर धारण नहीं करता।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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