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________________ मीमांसादर्शन और जैनदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन - डॉ. कुलदीप कुमार संस्कृत-व्याकरण के अनुसार 'दर्शन' शब्द 'दृश' धातु + ल्युट् प्रत्यय लगाकर बना है। इसका अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाए अथवा जो देखता है अथवा दृष्टि मात्र ही दर्शन है। दर्शन शब्द की व्युत्पत्ति शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से प्राप्त होती है १. “दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् ।" जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप को देखा जाता है वह 'दर्शन' है। २. “दृश्यतेऽनेन परं तत्त्वमिति दर्शनम्।” जिसके द्वारा परम तत्त्व के दर्शन किए जाएँ वह दर्शन है। ३. “पश्यति “दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्र वा दर्शनम् । ” जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखना मात्र दर्शन है। ४. “दृश्यते निर्णीयते वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्।” 'दर्शन' उस तर्क-वितर्क, मंथन या परीक्षास्वरूप विचारधारा का नाम है जो तत्त्वों के निर्णय में प्रयोजनभूत हुआ करती है। दर्शन की परिभाषा एवं दर्शनशास्त्र का कार्य - मनुष्य एक विचारशील या चिन्तनशील प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य करते समय अपनी विचारशक्ति का प्रयोग करता है । इसी विचारशक्ति को विवेक कहते हैं । अतः मनुष्य में जो स्वाभाविक विचार शक्ति है उसी का नाम दर्शन है। “दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्” । इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप देखा जाता है वह दर्शन है। अर्थात् यह संसार नित्य है या अनित्य, इसकी पुष्टि करने वाला कोई है या नहीं, आत्मा का स्वरूप क्या है, इसका पुनर्जन्म होता है या नहीं, ईश्वर की सत्ता है या नहीं, इत्यादि प्रश्नों का समुचि उत्तर देना दर्शनशास्त्र का काम है। भारतीय दर्शनशास्त्र की एक मौलिक विशेषता यह है कि वह वस्तुतः आध्यात्मिक है, क्योंकि इसका मूलमंत्र है- 'आत्मानं विद्धि' अर्थात् आत्मा को जानो । समस्त भारतीय दर्शन आत्मा की महत्ता पर प्रतिष्ठित हैं । समस्त भारतीय दर्शनों का प्रयोजन मोक्षप्राप्ति है। संसार के सभी प्राणी आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिवैदिक - इन तीन प्रकार के दुःखों से पीड़ित हैं; अतः इन दुःखों से निवृत्ति का उपाय बतलाना दर्शनशास्त्र का प्रधान लक्ष्य है। इसलिए दर्शनशास्त्र दुःख, दुःख के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन करता है। जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोग, रोगनिदान, आरोग्य और औषधि - इन चार तत्त्वों का प्रतिपादन आवश्यक होता है, उसी प्रकार दर्शनशास्त्र में भी दुःख, दुःख के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का कथन करना आवश्यक है। दर्शन के भेद -
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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