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________________ 38 अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 बौद्धधर्म में पंचशील के अन्तर्गत परिग्रहविरमण के स्थान पर सुरामेरय-मद्यादि के त्याग को स्थान दिया गया है। उन्होंने इन पाँचों का क्रम भी कुछ भिन्न रखा है, यथा-१. प्राणातिपातविरमण २. अदत्तादानविरमण ३.काम-मिथ्याचार (व्यभिचार) विरमण-यह मैथुनविरमण का पर्यायवाची है। ४. मृषावादविरमण ५.सुरामेरय-मद्यप्रमादस्थानविरमण। श्रामणेरविनय नामक खुद्दकपाठ में इन पंचशीलों को शिक्षापद के रूप में ग्रहण करने का उल्लेख हुआ है। यहाँ उल्लेखनीय है कि जैनधर्म में मांस-मदिरा के त्याग को श्रावक एवं साधु बनने की प्राथमिक आवश्यकता माना गया है। जैन आगमों एवं उत्तरवर्ती साहित्य में मांस एवं मदिरा के त्याग का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। सप्त कुव्यसनों के अन्तर्गत भी जैनसाहित्य में मांस एवं मदिरा के त्याग पर बल दिया गया है। यही नहीं, इनके व्यापार को भी कर्मादान का हेतु होने से बौद्ध धर्म की भांति त्याज्य बताया गया है। जैन दर्शन में परिग्रह-विरमण को महाव्रतों एवं अणुव्रतों में स्थान देकर आध्यात्मिक एवं सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद किया गया है। पर पदार्थों के प्रति आसक्तिरूप परिग्रह जब तक नहीं छूटता तब तक दुःख मुक्ति संभव नहीं है। यही नहीं जब तक पर पदार्थ एवं व्यक्तियों के प्रति आसक्ति भाव है तब तक हिंसादि पापों से भी छुटकारा नहीं मिलता। इसलिए परिग्रह से विरति आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तथा सामाजिक समरसता भी तभी सम्भव है जब बाह्य परिग्रह की लालसा नियंत्रित हो। परिग्रह की लालसा पर नियंत्रण होने पर बाह्य पदार्थों की उपलब्धता सबके लिए आसान हो सकती है। इसीलिए जैनधर्म में गृहस्थ के लिए भी परिग्रह का परिमाण निर्दिष्ट है। __ यहाँ पर यह ज्ञातव्य है कि बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों की संयम-साधना उतने कठोर नियमों में आबद्ध नहीं है, जितनी जैन मुनियों एवं साध्वियों की है। बौद्ध भिक्षु यात्रा में वाहन आदि का उपयोग कर लेते हैं, वे पास में पैसा भी रख सकते हैं, भिक्षा के बिना भी सुविधा से आमंत्रण पर भोजन कर लेते हैं। ब्रह्मचर्य के पालन में भी कठोर नियम न होने से भिक्षुणियों की संयम-साधना पर खतरा उत्पन्न हुआ और उनकी संख्या विलुप्त हो गई है। बौद्ध भिक्षु भिक्षा में प्राप्त मांस का सेवन भी न छोड़ सके। वहीं जैन साधु-साध्वी संयम की पालना में कहीं आगे हैं। कतिपय अपवाद को छोड़कर वे आज भी पदयात्रा करके एक ग्राम से दूसरे ग्राम पहुँचते हैं, वाहन आदि का उपयोग नहीं करते। पास में फूटी कौडी भी नहीं रखते तथा एषणा समिति के नियमों का पालन करते हुए शुद्ध गवेषाणापूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। मांस-मदिरा के सेवन से जैन साधु-साध्वी कोसों दूर हैं। साधु-साध्वी के पारस्परिक व्यवहार के नियम इतने कठोर हैं कि वे अकेले में कभी मिल बैठकर बात नहीं कर सकते। दिन के निश्चित समय में ही गृहस्थ स्त्रह-पुरुष की उपस्थिति में वे मिल सकते हैं तथा रत्नत्रय की साधना की अभिवृद्धि सम्बन्धी चर्चा कर सकते हैं, विकारवर्धक चर्चा नहीं कर सकते। दिगम्बर मुनि बाह्य परिग्रह के सर्वथा त्यागी होते हैं तथा श्वेताम्बर साधु लज्जा एवं संयम की रक्षा के लिए सीमित वस्त्र रखते हैं। उन वस्त्रादि पर भी मूर्छाभाव का होना उसी प्रकार त्याज्य है, जिस प्रकार शरीर एवं अपने वैचारिक आग्रह के प्रति मूर्छाभाव त्याज्य है। ___ बौद्धदर्शन में दुःखमुक्ति के लिए आष्टांगिक मार्ग का जो प्रतिपादन किया गया है उसका समावेश जैनदर्शन के त्रिरत्न में हो जाता है। आष्टांगिक मार्ग है-१.सम्यक्दृष्टि
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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