SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 २. सम्यक्संकल्प ३. सम्यक्वाचा ४. सम्यक्कर्मान्त ५. सम्यक् आजीव ६. सम्यक्व्यायाम ७. सम्यक्स्मृति और ८. सम्यक्समाधि । इनमें प्रथम दो को प्रज्ञा, मध्य के तीन को शील एवं अन्तिम तीन को समाधि के अन्तर्गत विभक्त किया जाता है। जैनदर्शन के अनुसार विचार करें तो सम्यक्दृष्टि को सम्यक्दर्शन के अन्तर्गत एवं सम्यक् संकल्प को सम्यक्ज्ञान के अन्तर्गत रखा जा सकता है। शेष सम्यक्वाचा, सम्यक्कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक्व्यायाम, सम्यक्स्मृति एवं सम्यक्समाधि को सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत सन्निविष्ट किया जा सकता है। एक प्रकार से आष्टांगिक मार्ग निर्वाण के मार्ग को विस्तार से प्रस्तुत करता है तथा त्रिरत्न उस मार्ग का संक्षेप में प्रतिपादन करता है। 39 बौद्धदर्शन में प्रमाण दो प्रकार का मान्य है- १. प्रत्यक्ष २. अनुमान । प्रत्यक्ष प्रमाण निर्विकल्प ज्ञानात्मक होता है तथा अनुमान प्रमाण सविकल्प ज्ञानात्मक । प्रत्यक्ष प्रमाण विषय स्वलक्षण अर्थ होता है तथा अनुमान प्रमाण का विषय सामान्य लक्षण प्रमेय होता है। इस प्रकार बौद्धदर्शन में प्रमाणों के पृथक्-पृथक् प्रमेय स्वीकार किए गए हैं। जबकि जैनदर्शन में प्रमेय का स्वरूप एक ही प्रकार का स्वीकार किया गया है और वह सामान्य-विशेषात्मक कहा गया है। उसे ही द्रव्यपर्यायात्मक, एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक अथवा नित्यानित्यात्मक कहा जाता है। प्रमाण दो प्रकार के मान्य हैं - १. प्रत्यक्ष २. परोक्ष । इनमे परोक्ष प्रमाण के भट्ट अकलङ्क एवं उत्तरवर्ती आचार्यों ने पाँच भेद स्वीकार किए हैं - १. स्मृति २. प्रत्यभिज्ञान ३. तर्क ४. अनुमान एवं ५. आगम प्रमाण । बौद्ध दार्शनिक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को प्रमाण नहीं मानते हैं तथा आगम प्रमाण का भी वे अनुमान प्रमाण में ही समावेश कर लेते हैं ।१४ बौद्धधर्म का वैशिष्ट्य - बौद्धधर्म का उद्भव यद्यपि जैनधर्म की भाँति भारतीय भूभाग पर हुआ, तथापि बौद्ध भिक्षुओं की प्रचारात्मक दृष्टि के कारण यह धर्म आज एशिया के चीन, तिब्बत, कोरिया, जापान, श्रीलंका, भूटान, बर्मा आदि विभिन्न देशों में व्याप्त है तथा अरबों की संख्या में इसके अनुयायी हैं। यूरोप एवं अमेरिकी देशों में भी यह धर्म निरन्तर प्रसार पा रहा है। प्रसार का आधार हिंसात्मक साधन नहीं, अपितु करुणा, , मैत्री एवं मानवता के अहिंसात्मक सिद्धान्त हैं। ईसाई एवं इस्लाम धर्म के पश्चात् विश्व में सर्वाधिक अनुयायी बौद्धधर्म के माने जाते हैं। जैन धर्म भारतीय धरा पर सुरक्षित रहा, यहाँ पूर्व से उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तक पहुँचा, किन्तु विदेशों में अपने अनुयायी न बना सका। इसके अनेक कारण संभव हैं- (१) जैन श्रमण-श्रमणियों की आचारसंहिता अत्यन्त कठोर है जो उन्हें वाहनों द्वारा विदेशी यात्रा के लिए अनुमति प्रदान नहीं करती। (२) जैनधर्म अपनी उदार एवं अनेकान्तवादी दृष्टि के कारण भारतीय वैदिक परम्पराओं के साथ समन्वय बिठाने में सक्षम रहा, अतः उसके समक्ष ऐसी कोई विवशता नहीं रही कि उसे यहाँ से पलायन करना पड़े। बौद्ध भिक्षुओं को भारत से पलायन करना पड़ा था। जैन धर्मावलम्बी आज अनेक देशों में रह रहे हैं, किन्तु वे मूलतः भारतीय हैं। जो कोई विद्वान् अथवा समणी विदेश में धर्मोपदेश करते हैं वे भी वहाँ रह रहे भारतीय मूल के जैनों को ही अपना लक्ष्य बनाते हैं । बौद्धधर्म भारत में पुनः प्रसार पा रहा है। बीसवीं सदी में डॉ.
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy