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अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012
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बौद्धदर्शन में दो प्रकार के सत्यों का प्रतिपादन हुआ है - १. व्यवहार और २. परमार्थ। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन इन दोनों की महत्ता अंगीकार करते हैं। उनका कथन हैव्यवहारमनाश्रित्य परमार्थों न देश्यते ।
परमार्थमनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते॥
अर्थात् व्यवहार का आश्रय लिए बिना परमार्थ को नहीं समझाया जा सकता और परमार्थ को जाने बिना निर्वाण को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए व्यवहार और परमार्थ दोनों दृष्टियों का अपना-अपना महत्त्व है । समयसार ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द भी इसी प्रकार का मंतव्य रखते हैं। उनका कथन है कि जिस प्रकार अनार्य व्यक्ति को अनार्य भाषा का प्रयोग किए बिना नहीं समझाया जा सकता उसी प्रकार व्यवहार नय के बिना परमार्थ का उपदेश असम्भव है
जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहे । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ॥
बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन कहते हैं कि व्यवहार सत्य उपायभूत होता है तथा परमार्थ सत्य उपेयभूत होता है- उपायभूतं व्यवहारसत्यमुपेयभूतं परमार्थसत्यम्। ऐसा ही मन्तव्य आचार्य कुन्दकुन्द का भी है जो उपर्युक्त गाथा से पुष्ट होता है।
साम्य भी भेद भी
बौद्धदर्शन में त्रिशरण का महत्त्व अंगीकार किया गया है । वहाँ बुद्ध, धर्म और संघ की शरण का प्रतिपादन है - बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि । जैनधर्म में चार शरण का उल्लेख प्राप्त होता है । अरिहन्त की शरण, सिद्ध की शरण, साधु की शरण और केवलिप्रज्ञप्त धर्म की शरण । मूल पाठ में कहा गया है- अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहुसरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि । इन चार शरणों में अरिहन्त एवं सिद्ध की शरण के स्थान पर बौद्ध धर्म में बुद्ध की शरण स्वीकार की गई है। साधु एवं संघ की शरण में कोई विशेष भेद नहीं है तथा धर्म की शरण दोनों में समान रूप में स्वीकृत है । मात्र क्रम का भेद है। इसका एक तात्पर्य यह निकलता है कि ये दोनों धर्म किसी अन्य देवी-देवता की शरण ग्रहण करने का कथन या अनुमोदन नहीं करते
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जैनधर्म में साधु-साध्वी के लिए पंच महाव्रतों की तथा गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं के लिए पाँच अणुव्रतों की अवधारणा है। बौद्धधर्म में भी पंचशील का प्रतिपादन हुआ है, जिनमें जैन परम्परा से कुछ भिन्नता है। जैनपरम्परा में जिन पाँच महाव्रतों का प्रतिपादन हुआ है वे हैं१. पाणाइवायाओ वेरमणं
प्राणातिपात से विरमण
अहिंसा महाव्रत
मृषावाद से विरमण अदत्तादान से विरमण मैथुनसेवन से विरमण
सत्य महाव्रत अचौर्य महाव्रत ब्रह्मचर्य महाव्रत
परिग्रह से विरमण
अपरिग्रह महाव्रत
प्राणातिपात, मृषावाद आदि इन पाँचों का कृत, कारित एवं अनुमोदन के स्तर पर मन, वचन, काया से सर्वथा विरमण होना महाव्रत है तथा अंशतः विरमण होना अणुव्रत है । २
२. मुसावायाओ वेरमणं ३. अदिन्नादाणाओ वेरमणं
४. मेहुणाओ वेरमणं
. परिग्गहाओ वेरमणं
५.