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________________ अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर 76 होता है। इस तप का आचरण करने के लिए साधक को विनम्र, सरल, निष्कपट एवं सद्भावों से युक्त होना चाहिये। जिस प्रकार किसी रोगी को उपचार (चिकित्सा) का उद्देश्य रोगी को कष्ट या दुख देना नहीं होता है, अपितु उसका कष्ट या दुःख दूर करना होता है, उसी प्रकार प्रायश्चित्त तप का उद्देश्य साधक की साधना को निर्दोष करना है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परंपरा में वासनाओं को कमजोर करने एवं समुचित आध्यात्मिक विकास की साधना के लिए शरीर, इन्द्रिय और मन को तपाया जाना तप कहा गया है। इनमें बाह्य तप तो शारीरिक क्रिया की प्रधानता के कारण और बाह्य द्रव्यों के आलम्बन की अपेक्षा रखते हैं और दूसरों को दिखाई भी देते हैं, परन्तु प्रायश्चित्तादि आभ्यन्तर तपों में मानसिक क्रिया की ही प्रधानता होती है, इनमें बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नही होती, इसलिए दूसरों के द्वारा दिखाई भी नहीं देते। इस प्रकार बाह्य तपों का स्थूल स्वरूप तथा अन्य लोगों के द्वारा जानने योग्य होने पर भी इन तपों का आभ्यन्तर तप की पुष्टि में उपयोगी एवं महत्वपूर्ण स्थान है। वैदिक ग्रन्थों में भी प्रायश्चित्त का बहुतायत से विधान पाया जाता है। यहाँ पर प्रायश्चित्त पद के अनेक अर्थ पाये जाते हैं। इनमें तप करने का दृढ़ संकल्प, पापशुद्धि, पाप मोजन के लिए धार्मिक क्रिया आदि अर्थ प्रमुख हैं। वैदिकपरंपरा के धर्मशास्त्र में प्रायश्चित्त को आवश्यक बताया गया है। इसलिये स्मृति साहित्य में प्रमुखता से इनका विधान मिलता है। प्रायश्चित्त विषयक विवरण को देखने से यह भी स्पष्ट होता है कि जैन परंपरा में प्रायश्चित्त विषयक विवेचन दो रूपों में प्राप्त होता है- प्राकृत ग्रंथों के आधार पर एवं तत्त्वार्थसूत्रादि संस्कृत ग्रंथों के आधार पर। संख्या, नाम एवं क्रम में भेद होने पर भी मूलतः इनके स्वरूपादि में विशेष अन्तर नहीं है। संदर्भ: १. याज्ञवल्क्यस्मृति मिताक्षरा टीकोपेता, संपादक डॉ. गंगा सागर राय, चौखम्बा, संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली, पुनर्मुद्रित संस्करण १९९९ २. वही, अध्याय ३ ३. मूलाचार, गाथा ३६०, ज्ञानपीठमूर्तिदेवी ग्रंथमाला, प्राकृत ग्रंथांक १९, द्वितीय संस्करण, १९९२ ४. तत्त्वार्थवार्तिक ९.२०, मूर्ति देवी जैन ग्रंथमाला, संस्कृत ग्रंथ संख्या २०, पृ. संस्करण, २००१ ५. सर्वार्थसिद्धि ९.२०, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्, १९९५ ६. तत्त्वार्थवार्तिक ९.१६.१७ ७. मूलाचार वृत्ति ११.५ ८. स्वयंभूस्तोत्र श्लोक ४९, समन्तभद्रग्रंथावली, वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, १९८९ ९. तत्त्वार्थवार्तिक ९.२२.१ १०. हिन्दू धर्मकोष-राजबली पाण्डेय, हिन्दी समिति प्रभाग ग्रंथमाला-२४८, उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण, १९८८ पृ.४३० ११. वही, पृष्ठ ४३० १२. पाराशरमाधवीय २.१.३ द्रष्टव्य-हिन्दू धर्मकोष, पृष्ठ-४३०
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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