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________________ अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर 48 परोक्ष ज्ञान के पाँच भेद स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, ऊह, अनुमान तथा आगम हेमचन्द्र ने स्वीकार किये हैं। प्राचीन जैनाचार्यो ने मति एवं श्रुत भेद से दो प्रकार का परोक्ष स्वीकार किया था। इन्द्रिय तथा मन के द्वारा प्राप्त ज्ञान मति तथा सर्वज्ञ तीर्थकरों का उपदेश सर्वश्रेष्ठ श्रुत ज्ञान कहलाता है। हेमचन्द्र ने आगम को श्रुत तथा शेष को मति ज्ञान में ही अन्तर्निष्ठ माना है। स्मृति अनुभव पर आधारित वह ज्ञान है जो संस्कार रूप में विद्यमान वस्तु के आकार का बोध कराती है। प्रत्यभिज्ञा इन्द्रिय जन्य तथा स्मरण के अनन्तर उत्पन्न होने वाला एक संकलनात्मक विजातीय मानस ज्ञान है। यह संकलन सादृश्य भाव, उससे विलक्षणता तथा प्रतियोगी का होता है। यथा- 'यह वही घट है' का ज्ञान प्रत्यभिज्ञा है। सर्वप्रथम कोई व्यक्ति घट को देखता है। तब पूर्व में देखे गये घट का स्मरण आने के बाद सादृश्य ज्ञान होता है। तदनन्तर पूर्व में देखे गये घट से पार्थक्य विलक्षणता के आधार पर दिखाई देता है। अन्त में उसका अभाव तथा प्रकृत घट का ज्ञान ही प्रत्यभिज्ञा कहलाता है। प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाणों से प्राप्त व अप्राप्त व्याप्तिज्ञान ही ऊह है। व्यापक तथा व्याप्य के बीच का धर्म व्याप्ति है। व्यापक (अग्नि) के धर्म (पर्वत) में अर्थात् पर्वतौ वन्हिमान कहने पर, जब धर्म में व्याप्य (धूम) भी होता है। अतः व्यापकवन्हिव्याप्यधूमवानयं धर्मीपर्वतः ही व्याप्ति कहलाती है। ऊह तथा ईहा में सूक्ष्म अंतर है। जहाँ ईहा में वस्तु क्या है? की विशेष आकांक्षा होती है वहीं ऊह में व्याप्ति संबन्ध का ज्ञान होता है। साधन से साध्य का विशिष्ट ज्ञान अनुमान है। यह दो प्रकार का है- स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। जब मानव निजी ज्ञान के लिये अनुमान करता है, वह स्वार्थानुमान कहलता है। इस प्रक्रिया में साध्य जो स्वयं के द्वारा निश्चित किया गया है, अविनाभाव संबन्ध से ही जाना जा सकता है। क्रमभाव व क्रमभावनियम में तथा सहभाव व सहभावनियम में साध य-साधन का संबन्ध अविनाभाव है। यथा- शिंशपात्व-वृक्षत्व (सहभाव व सहभावनियम) तथा धूम-धूमध्वज (क्रमभाव व क्रमभावनियम) ऊह से अविनाभाव का निश्चय होता है।३२ स्वयं निश्चित किये गये अविनाभाव के ज्ञान को दूसरे के लिये कहना ही परार्थानुसार कहलाता है। इसे वचन भी कहते हैं। इसके दो प्रकार उपपत्ति तथा अनुपपत्ति हैं। साध्य में साधन के होने पर प्रथम (अग्निमानयं पर्वतः तथैव धूमवत्वोपपत्तेः) तथा साध्याभाव होने पर द्वितीय (अग्निमानयं पर्वतः तथैव धूमवत्वानुपपत्तेर्वा) परार्थानुमान होता है। दोनों के तात्पर्य में भेद नहीं होने से, दोनों का प्रयोग नहीं होता। किसी को अनुमान का ज्ञान करवाने के लिए परार्थानुमान में पञ्चावयव वाक्यों को स्वीकार किया जाता है। जो हैं- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन।३५ साध्य का निर्देश प्रतिज्ञा है। हेतु से आशय साधनत्व की अभिव्यंजक विभक्ति अन्त वाले साधनवचन से है। दृष्टान्त वचन को उदाहरण कहते हैं। धर्मी में साधन के उपसंहार को उपनय कहते हैं। साध्य का निष्कर्ष ही निगमन है। जैसे ‘पर्वतो वन्हिमान्' प्रतिज्ञा वाक्य में 'धूमवत्त्वात्' हेतु के कारण यो यो धूमवान् स स वन्हिमान्' उदाहरण से तथा चायम्' का उपनय होते हुए अंत में 'तस्मात्तथा' का निगमन हो परार्थानुमान सिद्ध होता है।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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