SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार जैन प्रमाणमीमांसा प्रत्यक्ष के दो भेद मुख्य प्रत्यक्ष तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं। मुख्य प्रत्यक्ष के तीन भेदकेवल, अवधि तथा मनःपर्याय हैं जबकि सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के छः प्रकार यथा इन्द्रिय, मन, अवग्रह, ईहा, आवाय, धारणा है। मुख्य प्रत्यक्ष से आशय ज्ञान के समस्त बाधक तत्त्वों का आत्मा से पूर्णतया नष्ट हो जाना है, जिससे चेतना के स्वरूप का उदय होता है तथा अनंत ज्ञान प्राप्त होता है। इसे ही केवल ज्ञान भी कहते हैं। बाधकाभाच्च (१.१.१७) सूत्र के माध्यम से केवल ज्ञान के अबाध क होने को बतलाया है। अवधिपर्याय ज्ञान वह है जिसमें मनुष्य अपने कर्म को अंशतः नष्ट करके ऐसी शक्ति प्राप्त करता है जिसके द्वारा वह अत्यन्त दूरस्थ तथा अस्पष्ट द्रव्यों को भी जान सकता है। इसके द्वारा सीमित वस्तु का ज्ञान होता है। मनःपर्याय ज्ञान में मानव रोग द्वेष आदि मानसिक बाधाओं को विजित कर अन्य व्यक्तियों के वर्तमान, भूत, भविष्य तथा विचारों को जान सकता है। इसके द्वारा दूसरे के मन में प्रवेश किया जा सकता है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से आशय उस ज्ञान से है जिसके इन्द्रिय तथा मन निमित्त कारण हैं, अवग्रह, आवाय तथा धारणा के माध्यम से आत्मा जिसे ग्रहण करती है। षड्विद सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रथम है। इन्द्र पद का अर्थ जैन दर्शन में जीव या आत्मा माना जाता है। अतः जैनाचार्य हेमचन्द्र का मानना है कि स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा श्रौत्र ये इन्द्रियाधिष्ठान हैं, इन्द्रियाँ नहीं। इन्द्रियाँ तो उन आकारों में स्थित अतीन्द्रिय वस्तुरूप हैं। इन्द्रियाँ द्रव्य तथा भाव भेद से दो प्रकार की हैं।६ पौद्गलिक अधिष्ठानों द्रव्येन्द्रियाँ कहा जाता है तथा भावेन्द्रियाँ वे हैं जो भौतिक या जड़ द्रव्य न होकर चेतनशक्तिविशेषरूप तथा अतीन्द्रिय हैं।" संपूर्ण प्रकार के अर्थ (विषयों) की प्राप्ति में बाह्य चक्षु आदि इन्द्रियाँ असमर्थ हैं, अतः ऐसे सर्व विषयों को ग्रहण करने वाला मन होता है। द्रव्यमय तथा भावमय भेद से मन दो प्रकार का है। द्रव्यमन मन पौद्गलिक है जो एक विशेष प्रकार के सूक्ष्मतम मनोवर्णनात्मक जड़ द्रव्यों से उत्पन्न होता है और प्रतिक्षण शरीर की तरह परिवर्तन भी प्राप्त करता है। भावमय मन आत्मा है जो ज्ञानशक्ति तथा ज्ञानरूप होने से चेतनद्रव्यजन्य है। जैन की प्रत्यक्ष प्रक्रिया में पहले इन्द्रिय संवेदन होता है। इसके पश्चात् अर्थ का ग्रहण ही अवग्रह है। यह मानसिक विकल्प नहीं है। अवग्रह में केवल विषय का ग्रहण होता है जबकि ईहा में विशेष आकांक्षा का ज्ञान होता है।२० ईहा के बाद निश्चयात्मक ज्ञान की स्थिति आवाय है। स्मृति का कारण संस्कार ही धारणा है।२ परोक्ष प्रमाण - __ आचार्य हेमचन्द्र ने परोक्ष का लक्षण प्रत्यक्ष के विपरीत किया है। अविशदः परोक्षम् (१. २.१) सूत्र के माध्यम से सर्वज्ञ द्वारा अकथित तथा आत्मा से इतर इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान को ही परोक्ष माना है। जैन मतानुसार केवल तथा मनःपर्याय ज्ञान दोषरहित है। अन्य परोक्ष तथा अवधि ज्ञान में दोष ही संभावना रहती है।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy