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________________ आचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार जैन प्रमाणमीमांसा अनुमान प्रमाण में सर्वाधिक दोष हेतु के कारण होते हैं। अतः जो वास्तव में हेतु न हो किन्तु हेतु जैसा प्रतीत हो, वह हेत्वाभास कहलाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने असिद्ध, विरुद्ध तथा अनैकान्तिक तीन प्रकार का हेत्वाभास माना है। ३७ हेतु का प्रयोग साध्य को सिद्ध करने के लिये होता है। जिस हेतु का सत्त्व अर्थात् साध्य निश्चित न हो, जो हेतु अविद्यमान अथवा अन्यथा अनुपपन्न हो तथा साध्य से असिद्ध या संदेह होने पर असिद्ध हेत्वाभास होता है।८ यथा अनित्य शब्दाश्चाक्षुषत्वात् घटवत्' । इस उदाहरण में शब्द अनित्य है (प्रतिज्ञा) क्योंकि वह चक्षु से ग्रहण करने योग्य है (हेतु), घट के समान (उदाहरण) चक्षुरिन्द्रिय से ग्रहण किया जाना हेतु है किन्तु वह शब्द में नहीं है क्योंकि शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण किया जाता है। अतः यहाँ हेतु साध्य में निश्चित न होने तथा साध्य के असिद्ध होने पर असिद्ध हेत्त्वाभास है। 49 जब हेतु साध्य को सिद्ध न करके उसके विरोधी को ही सिद्ध कर दे, तो विरुद्ध हेत्वाभास होता है ।" "नित्यः शब्दः कार्यत्वात् आत्मावत्' इस उदाहरण में शब्द नित्य है (प्रतिज्ञा), क्योंकि वह कार्य है (हेतु), आत्मा के समान (उदाहरण) जैनदर्शन में कार्य अनित्य है, नित्य नहीं। अतः शब्द भी अनित्य है । इस प्रकार साध्य को सिद्ध न करके हेतु उसके विरोधी को ही सिद्ध करने के कारण रुद्ध हेत्वाभास है। अविनाभाव के असिद्ध या संदेह होने पर अन्यथा उपपद्यमान अनैकान्तिक है। सरल शब्दों में अविनाभाव संबन्ध में कभी हेतु का संबन्ध साध्य से रहता है कभी साध्येतर वस्तु से। यथा सन्देहे यथा असर्वज्ञः कश्चिद् रागादिमान् वा वक्तृत्त्वात्'। संदेह मात्र से रागयुक्त तथा वक्ता होने के कारण महावीर को असर्वज्ञ नहीं माना जा सकता। परोक्ष का पांचवा भेद आगम है। हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा पाण्डुलिपि में आगम का वर्णन अप्राप्त है। इसे जैन दर्शन में शब्द प्रमाण के रूप में दर्शाया गया है। आगम को श्रुत ज्ञान के नाम से भी जाना जाता है। आप्त वचनों को सुने तथा प्रामाणिक आगम ग्रंथों को देखे बिना श्रुत ज्ञान नहीं हो सकता । शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। श्रुत अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक भेद से दो प्रकार का है। मानव मात्र के लिखित तथा उच्चरित भाषा को अक्षरात्मक तथा द्वीन्द्रिय, मूक तथा बाल की भाषा अनक्षरात्मक होती है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जब भारत में बौद्ध न्याय तथा नैयायिक न्याय अपना स्थान बना चुके थे, ऐसे समय में आचार्य हेमचन्द्र ने जैन प्रमाणमीमांसा को सुव्यवस्थित ढंग से व्याख्यायित कर इस प्रतिस्थापित किया। उनके पूर्ववर्ती जैनाचार्य यथा अकलंक, कुन्दकुन्द, हरिभद, सिद्धसेन, समन्तभद्र इत्यादि के प्रमाणविषयक चिंतन को भी उन्होंने अपने ग्रंथ तथा प्रमाण व्याख्या में यथास्थान महत्त्व दिया है। जैन प्रमाण परम्परा में आत्मविषयक ज्ञान का महत्त्व अधिक है जो इसे अन्य भारतीय दर्शनों से पृथक् करता है। इसकी शब्दावली भी थोड़ी अलग है जैसे यक्ष का आशय आत्मा से लेना इत्यादि । इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र का प्रमाणविषयक चिंतन सारयुक्त तथा स्पष्ट है। संदर्भ : १. माता चाहिणी तथा पिता चच्च की संतान चंगदेव २१ वर्ष की अवस्था में सूरि का पद को प्राप्त करके, वे हेमचन्द्र सूरि कहलाये। इन्होंने द्ववाश्रय काव्य, सिद्धहेम की प्रशस्ति,
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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