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________________ आचार्य श्री शांतिसागर जी एवं श्रमण परंपरा : कल आज और कल वैद्यक आदि नहीं आते। जो साधु यह सब करते हैं, 'रयणसार' में उन्हें संसक्त और पार्श्वस्थ की श्रेणी में खड़ा किया गया है। स्व. डॉ. नेमीचंद संपादक 'तीर्थकर' के शब्दों में - "हमें देखना होगा कि आज जो आचार्य/ साधु बने या बन रहे हैं, वे भाव आचार्य हैं या द्रव्य आचार्य। हमें आने वाले कल और आज के लिए भाव आचार्य व भाव साधु की जरूरत है, ताकि हम उन चारित्रिक विपदाओं का मुकाबला कर सकें, जो हमारा द्वार पूरे बल से खटखटा रही है।" - निदेशक, वीर सेवा मंदिर, २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी का एक संस्मरण - सम्यक्त्व की सम्पदा - अनासक्ति निर्मल मन, सम्यक्त्व की ओर है। एक बार आचार्य श्री ने एक प्रतीकात्मक प्रश्न पूछा- “क्या चूल्हे में आग जलने से तुम्हे कष्ट होता है? “नहीं महाराज! इसमें कष्ट की क्या बात, चूल्हा हमसे पृथक है।" आचार्यश्री ने कहा- इसी भांति- शरीर से आत्मा को चूल्हे की भांति पृथक मानें। मोही-गीला नारियल है। अनासक्त-सूखा नारियल है। शरीर में रोग उत्पन्न हो जाए तो शमन का उपाय करें, लेकिन शमन के लिए आत्मा का दमन न करें। आचार्य श्री की पीठ पर 'दाद' रोग फैलते देख एक श्रावक ने विनम्र भाव से कहा- “महाराज श्री” आप इस दाद की दवाई क्यों नहीं करते?" महाराज श्री - मंद मुस्कान से बोले- 'बहुत दवाई लगाई परन्तु रोग, मेरा (शरीर का) पिण्ड नहीं छोड़ रहा है। बस एक दवाई करना भर शेष है, उसे लगावेंगे तो यह रोग नष्ट हो जावेगा तथा शरीर भी रोग मुक्त हो जावेगा।" श्रावक ने कहा- दवा का नाम बतायें, मैं लाने का प्रयास करूंगा। “अभी तूं वह दवा नहीं जानता। मैं उसे लगाकर दो माह में शरीर नीरोग बना दूँगा"- गंभीर होकर आचार्यश्री बोले! जीवन में गुलामी स्वीकार नहीं की। दवा करते करते थक गये। अब तो समाधिमरण धारण करके नया शरीर ग्रहण करेंगे। आचार्य श्री की शरीर के प्रति यह अद्भुत अनासक्ति देख वह श्रावक चुप हो गया। कृति- “लोकोत्तर साधक" से साभार- कृतिकार- प्राचार्य निहालचंद जैन
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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