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________________ न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार जैन और उनके द्वारा सम्पादित सिद्धिविनिश्चय टीका - डॉ. रमेशचन्द जैन जैन न्याय की विशाल परम्परा के क्षेत्र में श्वेताम्बर आचार्य यशोविजय के उदय के शताब्दियों बाद न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार जैन का उदय बीसवीं शती ईस्वी में हुआ, जो सभी भारतीय दर्शनों के तलस्पर्शी विद्वान् और जैन दार्शनिक साहित्य के अग्रणी सारस्वत मनीषी थे । दिगम्बर जैन समाज में आज उन जैसा न कोई दार्शनिक है और न सम्पादक। उन्होंने अनेक प्राचीन दुरूह दार्शनिक ग्रन्थों का बड़ी योग्यता से सम्पादन किया था। उन्होंने अकलंक ग्रन्थत्रय से प्रारम्भ करके अकलंकदेव के मूल ग्रन्थों का टीका के साथ जो संपादन किया है, वह उन्हें अमर बनाने वाला है। इतने विद्वान् होते हुए भी उन्हें कभी अपनी विद्वत्ता का गर्व नहीं हआ। वे अत्यन्त सरल और निश्छल थे। सत्य बात को कहने में कभी चूकते नहीं थे। एक बार सुप्रसिद्ध विद्वान् राहुल सांकृत्यायन ने जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाण का खण्डन कर दिया, तब न्यायाचार्य जी ने युक्ति और प्रमाणों द्वारा उसका जो उत्तर दिया, दार्शनिक जगत् में उसकी बड़ी सराहना हुई थी और राहुल जी ने प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलाल जी संघवी से कहा था कि अगर यह युवा विद्वान् यूरोप में हुआ होता तो इसे नोबिल पुरस्कार प्राप्त हुआ होता। इसकी युक्तियों में प्रौढ़ता है, इसके तर्कों में पैनापन है और इसकी विषय प्रतिपादन की शैली प्रभावक है। सर्वप्रथम इन्होंने स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में न्यायाध्यापन किया। श्रीमान् साहु शान्तिप्रसाद जी तथा उनकी पत्नी श्रीमती रमारानी ने अप्रकाशित जैन वाड्.मय के संरक्षण, संशोधन, संपादन और प्रकाशन के लिए सन् १९४४ ई. में काशी में भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना की थी। उस समय ज्ञानपीठ के सफल संचालन के लिए एक योग्य संचालक की आवश्यकता थी तब पण्डित जी की योग्यता और विद्वत्ता से प्रभावित होकर साहु जी ने पण्डित जी को ज्ञानपीठ के संचालक पद पर नियुक्त किया था। इसके साथ ही मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला का संपादक तथा नियामक भी बनाया था। ज्ञानपीठ में रहकर उन्होंने ज्ञानोदय पत्रिका का योग्यतापूर्वक संपादन किया। अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने जैनदर्शन और जैन न्याय के अनेक दुरूह ग्रन्थों का आधुनिक शोधपूर्ण शैली में विद्वत्तापूर्ण संपादन किया है। संपादित ग्रन्थों में उनकी उच्चकोटि की प्रतिभा स्पष्ट झलकती है। प्रत्येक ग्रन्थ पर उन्होंने वैदुष्यपूर्ण प्रस्तावनायें भी लिखीं जो विशेष रूप से पठनीय चिंतनीय और मननीय हैं। उनके द्वारा संपादित ग्रन्थों में अधिकांश ग्रन्थ जैन न्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव प्रणीत हैं। प्रायः ये सभी ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित हुए हैं। उनकी एक मौलिक कृति है - जैनदर्शन। इस कृति में जैनदर्शन के अनेक
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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