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________________ वैचारिक समन्वय के रूप में अनेकान्तवाद नीली, खून लाल, इस तरह से पांच रंग हैं। इसलिए हम सुन्दर लगते है। यदिसब एक ही रंग के हों, जैसे खून काला, चमड़ी भी काली तो कैसा विचित्र शरीर दिखाई देगा, इसलिए विविधतापूर्ण दुनिया के अंदर जीने के लिए अनेकान्त की जरूरत है। सह-अस्तित्व के लिए - सहिष्णुता और सहनशीलता की कोई सीमा नहीं। इस सहिष्णुता एवं सहनशीलता को समझाने के लिए आचार्यों ने अनेकान्त और स्याद्वाद को बताया। समझाने के लिए वाणी की एक शैली है, इसको सप्तभंग भी कहते हैं। इस प्रकार सहिष्णुता का प्रतीक है अनेकान्त और स्याद्वाद। इसे ही सापेक्षवाद भी कहते हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं- अनेकान्त का मतलब जितने पदार्थ, जितने वस्तु के धर्म तुम समझना चाहो, करना चाहो, एक को मुख्य बना दो, दूसरे को गौण बना दो, फिर जिसको मुख्य बनाया, उसे गौण बना दो और जिसे गौण बनाया, उसे मुख्य बना दो तो तुम सत्य को पकड़ पाओगे। अगर सबको मुख्य बना दिया या सबको गौण बना दिया तो सत्य को नहीं पकड़ पाओगे, आग्रह हाथ आयेगा। नवनीत नहीं मिलेगा, सच्चाई नहीं मिलेगी। इस सिद्धान्त के आधार पर सह-अस्तित्व का विकास हुआ। सह-अस्तित्व आज के युग का चिंतन है। यह लोकतंत्र आज का युग चिंतन है। संयुक्त राष्ट्रसंघ इसलिए बना कि सह-अस्तित्व का सिद्धान्त मान्य हो गया। यानी एक मंच पर साम्यवादी और पूंजीवादी राष्ट्र बैठते हैं और विश्व की समस्याओं का समाधान करते हैं। यह स्याद्वाद के सिद्धान्त का सह-अस्तित्व के सिद्धान्त का क्रियान्वयन है। इस प्रकार जैनाचार्यों का चिंतन रहा है कि समस्त जीव निर्विकल्प होकर तत्व आराधना धर्म आराधना कर सके, समस्त धर्मों का आदर कर सके, जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत कर सकें, कलह वैमनस्यता, लड़ाई-झगड़ा का अभाव दिग्दर्शित हो। इसे हेतु २०वीं शताब्दी के जैनाचार्यों ने समस्याओं के निराकरण समाधान हेतु अनेकान्त को नवीन रूप में प्रस्तुत किया। अनेकान्त स्याद्वाद के माध्यम से सहिष्णुता सहनशीलता, वैचारिक समन्वय शांति, अभिव्यक्ति का अवसर प्राप्त होता है जो कि वर्तमान में मनुष्य एवं अन्य पदार्थों के अस्तित्त्व के लिए परम आवश्यक है। संदर्भ: १. आचार्य ज्ञानसागर - वीरोदयमहाकाव्य, १९/८ २. आचार्य तुलसी-आत्मा के आस-पास, पृ. ३ ३. आचार्य महाप्रज्ञ- जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. २६४ ४. आचार्य देवेन्द्र मुनि- जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. २३१ ५. आचार्य विद्यानंद - श्रुतपंचमी एक महापर्व, जैन बोधक पत्रिका, जून, २००४ ६. आचार्य महाप्रज्ञ- जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. ६७ ७. आचार्य तुलसी- राजपथ की खोज, पृ. ६७ ८. आचार्य देवेन्द्र मुनि-जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. २३१
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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