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________________ अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर संविरोधिषु जनः परस्परं व्यावहारिक वचस्सु संचरन्। तत्सनुद्धरतु यद्यथोचितं को नु नाश्रपति वा स्वतो हितम्॥ अर्थात् व्यावहारिक नीति नियमों में कितने ही वचन ऐसे होते हैं, जो प्रायः एक-दूसरे के विरुद्ध पड़ते हैं। मनुष्य को चाहिए कि उनमें से जिस वचन को लेकर जीवन निर्वाह हो, उस समय उसी को स्वीकार करे अर्थात् जीवन में उपयोगी वचन को ही स्वीकार करें। परस्पर में समन्वय को स्थापित करते हुए कहते हैं - तुकरुल्कताभ्येति कुरानमारादीशपिता वाबिलमेकधारा। तयोस्तु वेदे पमुपैति विप्रः स्याद्वाददृष्टानत इयानसुदीप्रः॥ अर्थात् मुसलमान और ईसाई अपने-अपने धर्मग्रन्थ को ही प्रमाण मानते हैं। इस अपेक्षा एक ग्रन्थ एक के लिए प्रमाण है तो दूसरे के लिए अप्रमाण है किन्तु ब्राह्मण दोनों को ही अप्रमाण मानते हैं और वेद को प्रमाण मानते हैं। इस दृष्टांत में मुसलमान और ईसाई परस्पर विरोधी होते हुए भी वेद को प्रमाण नहीं मानने में दोनों अविरोधी हैं अर्थात् एक है। इस प्रकार एक की अपेक्षा जो ग्रंथ प्रमाण है, वही दूसरे की अपेक्षा अप्रमाण है। तीसरे की अपेक्षा दोनों ही अप्रमाण हैं। इस स्थिति को एकमात्र स्याद्वाद सिद्धान्त यथार्थतः कहने में समर्थ है, एकान्तवादी सिद्धांत नहीं। आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं-२ - जगत की जितनी समस्याएं हैं, उनको यदि अनेकान्तदृष्टि से विचार करें तो समाधान हो सकता है। वे कहते हैं- समस्या चाहे व्यवहार की हो या अध्यात्म की, समाज की, राजनीति की सारी समस्याएं अनेकान्त के आधार पर उलक्षती नहीं सुलझती हैं। आगे कहते हैं कि वैचारिक समन्वय के लिए तटस्थता आवश्यक है। एक विचारक एक दृष्टिकोण को पकड़ कर उसका पक्ष करता है, समर्थन करता है, उसके प्रति राग करता है। दूसरा विचारक दूसरे का पक्ष करता है, समर्थन करता है। पहला विचार दूसरे का खण्डन करता है और दूसरा विचार पहले का खण्डन करता है। दोनों एक-दूसरे को प्रतिपक्षी मानते हैं। द्वेष की दृष्टि से देखते हैं। अपने विचार के प्रति राग और दूसरे के विचार के प्रति द्वेष। राग-द्वेष की ये दोनों आँखें अपना काम करती हैं। जब तक तटस्थता की दृष्टि नहीं जागती तब तक तीसरा नेत्र नहीं खुलता। जैसे ही तीसरा नेत्र खुलता है, अपना विचार छूट जाता है। पराया विचार भी छूट जाता है। शेष सच्चाई रह जाती है। व्यक्ति पूर्ण तटस्थता को प्राप्त हो जाता है।२३ आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि हम अनेकान्तवाद अहिंसा के पथ पर चलने वाले हैं, हमारी भाषा स्याद्वाद है। पहले तोलो, फिर बोलो। बोलने के बाद तोलोगे तो झगड़ा हो जायेगा। हमारा सिद्धान्त है अहिंसा और अनेकान्तवाद। अनेकान्तवाद का मतलब है कि समन्वय करो। उदाहरण देकर समझाते हैं कि एक बाग में नाना तरह के रंग-बिरंगे फूल होते हैं। जब माली उन फूलों को इकट्ठा करके गुलदस्ता बनाता है तो गुलदस्ता बहुत सुन्दर लगता है। इस दुनिया के अन्दर कितनी जातियों के कितने धर्मों तथा संप्रदायों के लोग मिल-जुलकर इकट्ठा रहते हैं तो सब सुन्दर लगते हैं। यदि बिखर जायेंगे तो कोई सुन्दरता नहीं रह जायेगी। दूसरा उदाहरण देते हैं कि हमारे शरीर में बाल काले हैं, हड्डी सफेद है, पित्त पीला, नशें
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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