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________________ वैचारिक समन्वय के रूप में अनेकान्तवाद व्यक्ति के विषय में परस्पर विरुद्ध विधान करते हैं ? नहीं। इसी प्रकार आचार्य ज्ञानसागर कहते हैं५ - धूकापचान्थ्यंददेव भास्वान् कोकापशोक वितरन् मुधावान्। भुवस्तले किन्न पुनर्धियापि आस्तित्वमेकल च नास्ति तापि। अर्थात् भूतल पर प्राणियों को प्रकाश देने वाला सूर्य उल्लू को अन्धापना देता है और सबको शान्ति देने वाला चन्द्रमा कोक पक्षी को प्रिया वियोग का शोक प्रदान करता है। फिर बुद्धिमान लोग यह सत्य क्यों न मानें कि एक ही वस्तु में किसी अपेक्षा अस्तित्व धर्म भी रहता है और किसी अपेक्षा नास्तित्व धर्म भी रहता है। आचार्य तुलसी कहते हैं।६ - अस्तित्व और नास्तित्व भी सापेक्ष है, वे-एक दूसरे के विरोधी नहीं है। इसी बात को आचार्य विद्यानंद कहते हैं१७ - इस विशाल विश्व के अंदर अनन्तानंत पदार्थ हैं, भिन्न भिन्न स्वभाव वाले पदार्थ हैं। उनको हम अनेकान्त के माध्यम से ही समझ सकते हैं। अनेकान्त एक ऐसा सिद्धान्त है, जो सारी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है। आचार्य कहते हैं कि जब हम कोई भी बात कहते हैं तो उसके समक्ष एक प्रतिपक्ष खड़ा हो जाता है। जैसे दिन में कहो तो रात भी है, पुरुष कहो तो स्त्री भी है, अमृत है तो जहर है, सत्य है तो असत्य है, धर्म है तो अधर्म है, हिंसा है तो अहिंसा है, पुण्य है तो पाप है। इस प्रकार दो परस्पर विरोधी तत्त्व अनादि से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। आचार्य विद्यासागर उदाहरण से समझाते हैं कि - हो एक ही पुरुष भानज तात भाई, देता वही सुत किसी नय से दिखाई। पै भ्रात तात सुत ओ सबका न होता, है वस्तु धर्म इस भांति अशान्ति खोता। अर्थात् जिस प्रकार एक ही पुरुष किसी अपेक्षा पुत्र, किसी अपेक्षा पिता, किसी अपेक्षा पति, किसी अपेक्षा मामा, किसी अपेक्षा भाई है, उसी प्रकार वस्तुतत्त्व को समझना चाहिए। आगे कहते हैं - ज्यों वस्तु का पकड़ में एक धर्म आता, तो अन्य धर्म उसका स्वयमेव भाता। वे क्योंकि वस्तुगत धर्म अतः लगाओ, स्यात् सप्तभंग सबमें झगड़ा मिटाओ॥१९ अर्थात् विविध अपेक्षा वस्तु तत्त्व व्यवस्थापित किया गया है, किसी एक अपेक्षा को धारण न करके संपूर्ण वस्तुतत्त्व को ग्रहण करना चाहिए एवं स्यात्पद को धारण करके समस्त विकल्प जालों को त्यागना चाहिए। वैचारिक समन्वयवाद के रूप में - वर्तमान परिदृश्य में देखा जाये तो परस्पर कलह, विद्रोह, ईर्ष्या, वैमनस्य, छोटे-बड़े की भावना, आतंकवाद आदि का ताण्डव देखने को मिलता है। इन समस्त बातों का समाधान अनेकान्त स्याद्वाद को नहीं समझने से है। आचार्य ज्ञानसागर कहते हैं -
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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