SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 65/3, जुलाई-सितम्बर प्रतिरूपक अव्यय है। इसके प्रशंसा, अस्तित्व, विवाद, विचारणा, अनेकान्त, संशय प्रश्न आदि अनेक अर्थ होते हैं। जैन दर्शन में इसका प्रयोग अनेकान्त के अर्थ में भी होता है। स्याद्वाद अर्थात् अनेकान्तात्मक वाक्य। स्याद्वाद अनेकान्त दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है। आचार्य तुलसी कहते है - अनन्त धर्मात्मक द्रव्य का किसी एक धर्म के माध्यम से प्रतिपादन करना स्याद्वाद है, समग्र द्रव्य के प्रतिपादन का नाम स्याद्वाद है। आचार्य देवेन्द्रमुनि कहते हैं स्याद्वाद पद का अर्थ हुआ सापेक्ष सिद्धान्त, अपेक्षावाद, कथंचित्वाद या वह सिद्धान्त, जो विविध दृष्टि बिन्दुओं से वस्तुतत्त्व का निरीक्षण परीक्षण करता है। आचार्य विद्यानंद कहते हैं - अनेकान्त की अभिव्यक्ति को स्याद्वाद कहते हैं। इसको सापेक्षवाद भी कहते हैं, जैसे-कमण्डलु है उसे घड़ा कहना सत्य है और असत्य भी है। सत्य इसलिए कि वह जल-पात्र है, असत्य इसलिए कि वह घड़ा नहीं बल्कि कमण्डलु है। अनेकान्त से वस्तु-तत्त्व की सिद्धि अनन्त धर्मात्मक वस्तुतत्त्व की सिद्धि एकान्तदृष्टि से संपन्न नहीं होती अपितु अनेकान्त से ही होती है। प्रत्येक तत्त्व की अनन्तधर्मता प्रमाण से भलीभांति सिद्ध होकर विलसित हो रही है। इसलिए एकान्त को मानना तो मूर्खता का स्थान है। विद्वज्जन को ऐसी एकान्तवादिता स्वीकार करने के योग्य नहीं है किन्तु अनेकान्तवादिता को ही स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि अनेकान्तवाद की सिद्धि प्रमाण से प्रसिद्ध है। आचार्य देवेन्द्रमुनि कहते हैं - अनेकान्तवाद का आलोक हमें निराशा के अंधकार से बचाता है। वह हमें ऐसी विचारधारा की ओर ले जाता है, जहाँ सभी प्रकार के विरोधों का उपशमन हो जाता है। आचार्य तुलसी कहते हैं.२ - अनेक धर्मों में से जो भी धर्म मुख्य होकर सामने आता है, वह उसके आधारभूत द्रव्य को जानने का माध्यम बन जाता है। इस ज्ञान पद्धति में द्रव्य और धर्म की अभिन्नता का बोध बना रहता है। द्रव्य और धर्म (पर्याय) सर्वथा अभिन्न नहीं है, उनकी अभिन्नता एक अपेक्षा या एक दृष्टिकोण से सिद्ध है। अनेकान्तवाद दृष्टिकोण के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्यानित्य है। द्रव्य और पर्याय का सम्मिलित रूप वस्तु है या यों कहें कि द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं। पर्यायों के अभाव में द्रव्य का और द्रव्य के अभाव में पर्याय का कोई अस्तित्व नहीं है। वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म - वस्तुतत्त्व सापेक्ष है और स्याद्वाद पद्धति से ही उसका ठीक तरह से प्रतिपादन है तो वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व के विषय में भी हमें अनेकान्त को लागू करके देखना होगा।३ कई लोग अस्तित्व और नास्तित्व को विरोधी धर्म समझकर एक ही वस्तु में दोनों का समन्वय असंभव मानते हैं। मगर वे भूल जाते हैं कि एक ही अपेक्षा से यदि अस्तित्व और नास्तित्व का विधान किया जाये तभी उनमें विरोध होता है, विभिन्न अपेक्षाओं से विधान करने में कोई विरोध नहीं होता। जैसे किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में यह कहना कि वह मनुष्य है मनुष्येतर नहीं, भारतीय है पाश्चात्य नहीं, वर्तमान में है सदा से या सदा रहने वाला नहीं, विद्वान् है मूर्ख नहीं है तो क्या हम उस
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy