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________________ 70 अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 (1) भूमि शुद्धि विषयक मंत्र (2) बिघ्न शान्ति (3) भूमि संस्कार (4) पीठिका मंत्र (5) काम्य मंत्र (6) जाति मंत्र (7) निस्तारक मंत्र (8) ऋषि मंत्र (9) सुरेन्द्र मंत्र (10) परमराजादि मंत्र (11) परमेष्ठी मंत्र। गर्भाधानादि क्रियाओं के लिए गर्भाधान क्रिया, प्रीति क्रिया, सुप्रीति क्रिया आदि सोलह विशेष मंत्रों का उल्लेख किया गया है। उससे आगे की क्रियाओं के मंत्र शास्त्र परंपरा से समझ लेने का निर्देश दिया गया है।" ___मातृकाओं से बने मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य के लिए विचार शक्ति के साथ-साथ उत्कृष्ट इच्छा शक्ति के द्वारा ध्वनि संचालन की आवश्यकता होती है। प्रत्येक बीजाक्षर, शक्ति बीज की शक्ति स्वतंत्र है, जैसे ऊँ प्रणव, ध्रुव, ब्रह्मबीज या तेजो बीज हैं, क्ष्वी भोग बीज है, रं ज्वलन वाचक है आदि। वांछित कार्य की सिद्धि के लिए आवश्यकतानुसार जिन बीजाक्षरों के संयोजन की कला जिसके पास होती है वह वैसा मंत्र निर्माण करता है और साधक तनदुसार फल प्राप्त करता है। यदि इन बीजाक्षरों के संयोजन में विपरीतता आ जाये, संयोजन विकृत हो जायें, आंशिक संयोजन ठीक हो आदि के रूप में साधित मन्त्र विपरीत-विकृत या आंशिक या शून्य फल प्रदान करते हैं। जैसे-बिजली के तारों का धनात्मक एवं ऋणात्मक आवेशों में जुड़ना। यदि तार ठीक से जुड़े हैं, तब अंधकार दूर होकर प्रकाश हो जायेगा। गलत जुड़ने पर प्रकाश नहीं होगा, यह भी हो सकता है, आग लग जाये। इसी तरह साधक, उसकी विचार शक्ति, मंत्र और मंत्र की शक्ति अलग अलग स्थितियाँ हैं। विचार शक्ति स्विच का कार्य करती है और मंत्र शक्ति विद्युत् प्रवाह का। जैन मंत्रों के इतिहास में मंत्रों की विपरीतता के पुष्पदंत, भूतबली आदि के अनेक उदाहरण दृष्टव्य हैं। उचित दिशा में संयोजित बीजाक्षरों-मंत्रों की साधना सुफल प्राप्त कराती है। जैसे- आचार्य समन्तभद्र, आचार्य मानतुंग, आचार्य अकलंक, भट्टारक प्रभाचन्द्र आदि की मंत्रों की शक्ति से कौन परिचित नहीं है। किसी का अनर्थ करने के लिए किया गया मंत्र प्रयोग एक बार सफल तो हो जाता है, परन्तु उसके बाद उस साधक की मंत्र शक्ति नष्ट हो जाती है एवं वह दुर्गति को प्राप्त होता है। जैसे- द्वीपायन मुनि द्वारा द्वारका का दहन। अत: मातृका वर्णों के संयोजन-वियोजन से प्रसूत बीजमंत्रों की ध्वनियों के घर्षण से तदनुसार शक्ति प्रस्फुटित होती है। इस दृष्टि से सुख, शान्ति और अध्यात्म-शिवपथ की ओर ले जाने वाले मंत्रों के साथ-साथ शास्त्रों में ऐसे मंत्रों का भी उल्लेख है, जिनका संबन्ध लोक एवं भौतिकता से है। जैसे- स्तम्भन, मोहन, उच्चाटन, वश्याकर्षण, जृम्भण, विद्वेषण, मारण, शाक्तिक, पौष्टिक आदि अनेक मंत्रों की रचनाएं हुई हैं। मंत्रशास्त्र पर श्रमण परंपरा में अपेक्षित प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर विश्लेषण पूर्वक प्रामाणिक निष्कर्ष दिये जा सकें। आगमिक साहित्य में दशवें पूर्व के रूप में विद्यानुवाद पूर्व ग्रंथ का उल्लेख प्राप्त होता है। जिसके ज्ञाता केवली और श्रुतकेवली ही माने जाते हैं। उस ग्रंथ में 700 विद्याएँ और 1200 लघु विद्याओं का वर्णन प्राप्त होता है, परन्तु यह ग्रंथ अनुलब्ध है। आचार्य धरसेन मंत्र, तंत्र के विशेष ज्ञाता माने जाते हैं। धवला टीका में उनके द्वारा मंत्रशास्त्र पर 'योनिप्राभृत' नामक ग्रंथ लिखे जाने का
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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