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________________ अनेकान्त 64/1, जनवरी-मार्च 2011 करने वाला है और सभी मंगलों में प्रथम मंगल है। 'अर्हम्' ये अक्षर परमब्रह्म, परमेष्ठी के वाचक हैं और सिद्ध समूह के बीजाक्षर हैं। मंगल स्वस्ति वाचन के पश्चात् अष्टद्रव्य से पूजन की जाती है। जिसमें सर्वप्रथम मंत्रोच्चारण पूर्वक श्रावक पीले चावलों से ठौना पर वीतराग जिनबिंब के समक्ष जिनेन्द्र भगवान् का आह्वान किया जाता है और मन, वचन, काय की एकाग्रता के लिए उसी ठोने पर स्थापना करता है। वैदिक परंपरा में इसे न्यास कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस तरह पूज्य पवित्र है, उसी तरह पवित्र होने की भावना उत्पन्न हो जाये, सन्निधिकरण में पूजक अपने भावों को जिनदेव की तरह बनाने का प्रयत्न करता है। तदनन्तर पूजक अष्टद्रव्यों के माध्यम से जन्म-जरा,मुत्यु, संसारताप, कामताप, क्षुधारोग, मोहान्धकार और अष्टकर्म के रूप में जो संसार में दुःख के कारणभूत मोक्षमार्ग में बाधकतत्त्व हैं, उनके निवारणार्थ संगीतमय भक्ति के रस में तल्लीन होकर मंत्र पढ़ते हुए स्थापित जिनबिंब के समक्ष जल, चन्दन, अक्षत आदि द्रव्यों को चढ़ाता है। अन्त में फल चढ़ाकर मोक्षफल प्राप्ति की कामना करता है। इस तरह पूजन में मंत्रों की अपरिहार्य महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ___ मंत्रों के विषय में अनेक भ्रांतियाँ श्रावकों में प्रचलित हैं। जिसके निराकरण के लिए मंत्र का अर्थ जानना नितांत आवश्यक है। 'मंत्र शब्द 'मन्' धातु-दिवादि ज्ञाने से निष्पन्न है। इसमें 'ष्ट्रन्'- त्र-प्रत्यय संयुक्त कर बनाया जाता है। व्युत्पत्तिपरक इसका अर्थ होता है'मन्यते जायते आत्मादेशोऽनेन इति मंत्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का आदेश-निजानुभाव जाना जाये, वह मंत्र है। दूसरी तरह से तनादिगणीय 'मन्' धातु से 'तनादि अवबोधे' में 'ष्ट्रन्' प्रत्यय लगाकर मंत्र शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति के अनुसार 'मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन सः मंत्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेश पर विचार किया जाये, वह मंत्र है। तीसरे प्रकार से सम्मानार्थक 'मन्' धातु से 'ष्ट्रन्' प्रत्यय करने पर मंत्र शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति 'मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिताः आत्मानः वा यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मंत्रः' अर्थात् जिसके द्वारा परमपद में स्थित पञ्च उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासन देवों का सत्कार किया जाये, वह मंत्र है। 'मननात् मंत्रः' भी मंत्र शब्द की व्युत्पत्ति की जाती है अर्थात् मनन के कारण ही मंत्र कहा जाता है। मनन से व्यक्ति की ऊर्जा की शक्ति अध्यात्म की ओर बढ़ती है। मंत्रों के प्रभाव के लिए उनका प्रवाह साततिक होना आवश्यक है। 'मंत्र' शब्द का अर्थ कुछ विद्वान् गुप्त, परामर्श भी करते हैं। उनके अनुसार गुरु से प्राप्त मंत्र को अनुष्ठान पूर्वक सविधि पुरश्चरण करके उसे सिद्ध किया जाता है। तब ही उसका पूर्ण लाभ प्राप्त होता है। विधिपूर्वक श्रद्धाभक्ति से किये गये मंत्रजाप से जीव की प्रमुख चेतना जागृत होती है। सरल भाषा में कहा जा सकता है कि 'जिस शब्द समूह का किसी अलौकिक सिद्धि के लिए प्रयोग किया जाये, वह शब्द या शब्दसमूह मंत्र होता है। मंत्रों का वर्गीकरण महापुराण के आधार पर 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में पूजाविधानादि के लिए सामान्य रूप से जिन मंत्रों का प्रयोग किया जाता है, उनको अग्रलिखितानुसार वर्गीकृत किया गया है
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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