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________________ प्राचीन भारतीय न्यायिक व्यवस्था - डॉ. मुक्ता बंसल एवं डॉ. मुकेश कुमार प्राचीन भारतीय व्यवस्थाकारों ने समाज एवं मनुष्य को व्यवस्थित और नियंत्रित रखने के लिए जिन मान्य परंपराओं, प्रथाओं तथा विधानों को लिपिबद्ध किया है, उन्हीं नियमों को विधि और कानून की संज्ञा प्रदान की गयी। इन विधिक सिद्धांतों को राज्य-संस्था द्वारा स्वीकृत किया गया। इसी कारण इनके अनुपालन के लिए राज्यशक्ति का प्रयोग आवश्यक हुआ। वैदिक युग से ही विधि एवं विधिक संस्थाओं की स्थापना प्रारंभ हो गयी थी। वैदिक साहित्य में विधि द्वारा न्याय करने के संकेत मिलते हैं। उत्तर वैदिक काल में धर्मशास्त्रों, सूत्रसाहित्यों तथा स्मृतिग्रंथों में विभिन्न प्रकार से विधि का स्वरूप निर्मित हुआ। सूत्र साहित्य में विधि का मुख्य आधार वेदों को ही माना गया। आपस्तम्ब-धर्मसूत्र के अनुसार धर्म-व्यवस्था के मूल स्रोत वेद हैं तथापि इतिहास, स्मृति और आचार से भी धर्म-व्यवस्था का बोध होता है। वैदिक युग में वरुण को प्रशासन और न्याय का अधिष्ठातृ-देवता कहा गया है, जिसके प्रतिनिधि के रूप में राजा इस लोक में राज्य करता है, जो पापियों को दण्ड देता है और सज्जनों की रक्षा करता है। महावीरचरित नाटक में कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रजाजनों के विरुद्ध आचरण करता है और जानबूझकर पाप और अपराध करता है, उसको राजा अवश्य दण्ड देता है। प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था उन व्यक्तियों द्वारा निर्मित की गयी थी, जो समस्त जीवन का अनुभव प्राप्त किये हुए मनुष्य की चरम अवस्था को प्राप्त कर, सांसारिक जीवन के स्वार्थों से निर्लिप्त थे और जो समाज की व्यवस्था निर्माण के लिए सबसे अधिक योग्य थे। यह व्यवस्था 'आप्त' वाक्यों के रूप में श्रुति-साहित्य; वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में दी गयी थी और आगे चलकर जिनका स्पष्टीकरण नियमों तथा उपनियमों के रूप में स्मृतियों, धर्मसूत्रों तथा वेदांगों आदि में किया गया था। प्राचीन भारत में समाज के नियम बनाने का अधिकार राज्य को प्राप्त नहीं था। भारतीय विचारकों तथा समाज-व्यवस्थापकों की धारणा थी कि राजतंत्रात्मक, गणतंत्रात्मक या कुलीनतंत्रात्मक किसी भी राज्य का अधिकार जिन लोगों के पास रहता है, वे सांसारिक दृष्टि से महत्त्वाकांक्षी होते हैं और अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अथवा अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए वे समस्त उपायों या युक्तियों को करने के लिए तत्पर रहते हैं, वे निष्पक्ष और निर्लिप्त रूप में सांसारिक जीवन के संघर्षों और स्वार्थों से ऊपर उठकर विचार कर ही नहीं सकते, अत: ऐसे व्यक्तियों के हाथों में समाज के नियम बनाने का अधिकार देना उन्हें मान्य नहीं था। यही कारण है कि समाज के नियम तथा उन नियमों के स्पष्टीकरण के अधिकार के लिए 'परिषद्' नाम की एक संस्था का निर्माण किया गया। 'परिषद्' के
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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