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________________ अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011 औत्सर्गिकलिंग" कहते हैं। दिगम्बर साधु की पहिचान के लिए जो प्राकृतिक चिह्न चाहित वह इन बातों से प्रकट होता है जैसा कि मूलाचार के समयसाराधिकार में कहा हैअच्छेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । 65 एसो हि लिंगकप्पो चदुब्बियो होदि णादव्वो ॥ ९०८ ॥ अर्थात् कपड़े आदि सर्वपरिग्रह का त्याग ( आचेलक्य) केशलोंच, शरीर संस्कार का त्याग, मयूरपिच्छ यह चार साधु के लिंग है। ये चारों अपरिग्रह भावना, वीतरागता एवं दयापालन के चिह्न हैं। इन औत्सर्गिकलिंगों का दिगम्बर साधु में होना आवश्यक है इनके बिना दिगम्बर साधु नहीं कहला सकता है। आचेलक्यधर्म मुनिचर्या का आवश्यक अंग ही नहीं अपितु अनिवार्य है। द्रव्य के साथ भाव नैर्ग्रन्थ ही मोक्ष का कारण है। इस संबन्ध में कहा भी है जया मणु णिग्गंथु जिय तइया तुहुं णिग्गंथु | जया तुहं णिग्गंथु जिय तो लब्भइ सिवपंथु ॥ योगसार ( योगीन्द्र ) अर्थात् हे जीव! तुम्हारा मन जब निर्ग्रन्थ होता है, तभी तुम वास्तव में निर्ग्रन्थ हो । इस प्रकार वस्तुतः निर्ग्रन्थ होने पर ही तुम मोक्षमार्ग के पक्षिक बन सकते हो। इससे सिद्ध हुआ कि मोक्षमार्ग के लिए नैर्ग्रन्थ्य (आचेलक्य) की परम आवश्यकता है। यह नैर्ग्रन्थ्य अवस्था प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान बालों के ही प्राप्त होती है। अप्रमत्तसंयतः संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय मन्द पड़ जाने पर जब प्रमाद का अभाव हो जाता है, तब अप्रमत्तगुणस्थान होता है। इस गुणस्थान के दो भेद हैं एक स्वस्थान दूसरा सातिशय। वर्तमान के मुनियों में स्वस्थान अप्रमत्त की अवस्था ही संभव है। सातिशय भाग में अध:करण परिणाम होते हैं अतः इस गुणस्थान का दूसरा नाम अधःकरण भी है। सातवें से छठवें गुणस्थान में आना और छठवें से सातवें गुणस्थान में आना यह क्रिया साधक की हजारों बार होती रहती है परिणामों की ऐसी ही विचित्रता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उत्तरोत्तर मन्दोदय होने पर जब कोई मुमुक्षु आचार्यदेव के पास जाकर दीक्षा देने की प्रार्थना करता है आचार्यदेव उसकी योग्यता की परीक्षा करके उसे दीक्षा प्रदान करते हैं वह पञ्च महाव्रत पञ्च समिति, पञ्च इन्द्रियनिरोध, षड़ावश्यक केशलोंच आदि शेष सात गुण रूप 28 मूलगुणों को धारण कर दिगम्बरमुनि अवस्था को प्राप्त होता है उस समय उसे सीधा सप्तम अप्रमत्त नामक गुणस्थान प्राप्त होता है किन्तु संज्वलन कषाय का तीव्र उदय होने से सप्तम गुणस्थान से षष्ठ गुणस्थान में आ जाता है। अनन्तर अल्प अन्तमुहूर्त में ही सप्त गुणस्थान में पहुँच जाता है। इस प्रकार गुणस्थानों में सन्त रहता है। प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान में साधक की परणति (क्रिया) का चित्रण पं. सुखलाल संघवी के शब्दों में पांचवें गुणस्थान की अपेक्षा इस छठे गुणस्थान में स्वरूप अभिव्यक्ति अधिक होने के कारण यद्यपि विकासगामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्ति पहले से
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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