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________________ 66 जैनदर्शन में गुणस्थानः एक अनुचिन्तन अधिक ही मिलती है तथापि बीच-बीच में अनेक प्रमाद उसे शान्ति के अनुभव में जो बाधा पहुंचाते हैं, उसको वह सहन नहीं कर सकता। अतएव सर्वविरति जनित शान्ति के साथ अप्रमाद जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का त्याग करता है और स्वरूप की अभिव्यक्ति के अनुकूल मनन-चिंतन के सिवाय अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देता है। यही अप्रमत्तसंयत नामक सातवां गुणस्थान है। इसमें एक ओर अप्रमादजन्य उत्कट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिए उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद जन्य पूर्व वासनाएं उसे अपनी ओर खींचती हैं। इस खींचातानी में विकासगामी आत्मा कभी प्रमाद की तन्द्रा और कभी अप्रमाद की जागृति अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार आता जाता रहता है। भंवर या वातभ्रमी में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर और उधर से इधर जिस प्रकार चलायमान होता रहता है उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान के समय विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाता है। अपूर्वकरण: जहाँ जीव के परिणाम प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व अर्थात् नये-नये होते हैं, वहाँ अपूर्वकरण गुणस्थान है। इस गुणस्थान में पिछले गुणस्थान की अपेक्षा विशुद्धता का वेग बढ़ता जाता है। जैसे प्रथम समय में यदि एक से लेकर दश तक परिणाम थे तो दूसरे समय में ग्यारह से लेकर बीस तक के परिणाम होंगे। यहाँ नाना जीवों की अपेक्षा सम समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता और असमानता दोनों होती है परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम में नियम से असमानता रहती है। इसमें सामान्य रूप से उपशमक और क्षपक ये दोनों प्रकार के जीव होते हैं। अनिवृत्तिकरण (अनिवृत्तिवादरसापरायिकगुणस्थान): सांपराय शब्द का अर्थ कषाय है और वादर का अर्थ स्थूल है अर्थात् स्थूल कषायों को वादर सांपराय कहते हैं और अनिवृत्तिरूप वादरसांपराय को अनिवृत्तिवादरसांपराय कहते हैं, उन अनिवृत्तिवादरसांपरायरूप परिणामों में जिन संयतों की विशुद्धि प्रविष्ट हो गई है, उन्हें अनिवृत्ति वादरसांपरायप्रविष्टशुद्धिसयत कहते हैं। ऐसे संयतों में उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के जीव होते हैं, और उन सब संयतों को मिलाकर एक अनिवृत्तिकरणगुणस्थान होता है। जहाँ एक समय में एक ही परिणाम होने से समान समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता रहती है और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में असमानता रहती है वहाँ अनिवृत्तिकरणगुणस्थान है। आचार्य वीरसेन स्वामी ने कहा है कि इसमें अपूर्वकरण की अनुवृत्ति है, उससे सिद्ध होता है कि इस गुणस्थान में प्रथमादि समयवर्ती जीवों का द्वितीयादि समयवर्ती जीवों के साथ परिणामों की अपेक्षा भेद है (अतएव इससे यह तात्पर्य निकल आता है कि अनिवृत्ति पद का संबन्ध एक समयवर्ती परिणामों के साथ ही है। सूक्ष्मसाम्पराय : (सूक्ष्म साम्परायप्रविष्टशुद्धिसंयतगुणस्थान) सूक्ष्मकषाय को सूक्ष्मसाम्पराय
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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