SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में गुणस्थान: एक अनुचिन्तन देशविरत: (संयतासंयत) संयत और असंयत इन दोनों भावों के मिश्रण से जो गुणस्थान होता है, उसको संयतासंयत कहते हैं। इसमें प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से पूर्ण संयम तो नहीं रहता किन्तु यहाँ इतनी विशेषता होती है कि अप्रत्याख्यानावरण का उदय न होने से एकदेशव्रत होते हैं। इस गुणस्थान वाला अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतों को धारण कर संख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करता है। यह उसी मनुष्य या तिर्यञ्च के होता है या तो किसी आयु का बन्ध न किया हो या देवायु का बन्ध किया हो। तीनों सम्यक्त्वों में यह गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान वाला 12व्रतों का पालन सम्यक् प्रकार से करता है। व्रतों का झुणव्रत रूप में पालन करता है। अतः एकदेशव्रती कहलाता है। देशव्रती का चिंतन जब ऐसा चलने लगता है कि मैनें एकदेश व्रतों का पालन किया तो इतना अधिक शान्ति लाभ हुआ यदि मैं सर्वविरति को प्राप्त करूँगा, तब कितनी अधिक शान्ति से प्राप्त होगी? इस विचार से प्रेरित होकर व प्राप्त आध्यात्मिक शान्ति के अनुभव से बलवान् होकर वह विकासगामी आत्मा चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा भी अधिक स्वरूप स्थिरता व स्वरूप लाभ प्राप्त करने की चेष्टा करता है। इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्वविरतिसंयम प्राप्त होता है। प्रमत्तसंयतः जहाँ प्रत्याख्यानावरणकषाय का क्षयोपशम होने से हिंसादि पांच पापों का सर्वदेश त्याग हो जाता है, परन्तु संज्वलनकषाय का अपेक्षाकृत तीव्र उदय रहने से प्रमाद विद्यमान रहता है, वहाँ प्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान है। सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र इस गुणस्थान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं "जिसके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन तीन चौकड़ी रूप बारह कषायों के उदयाभाव से संयम तो होता है किन्तु संज्वलन चतुष्क और नौ कषायों के तीव्र उदय से मलिन करने वाला प्रमाद भी साथ में रहता है, अतः यह अवस्था प्रमत्तसंयत गुणस्थान वाले की होती है, या यह प्रमत्तसंयत गुणस्थान है। चार विकथा (स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा) क्रोधादि चार कषायें, पांच इंन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय से पन्द्रह प्रमाद माने जाते हैं। इनमें संयम की विरोधी चर्चा को विकथा कहा गया है। संज्वलन और नौ नो कषाय अनुभवगम्य है दूसरे प्रकार से मदिरा, इन्द्रियविषय, कषाय, निद्रा, और विकथा इन पांचों में से किसी एक को अथवा सभी को प्रमाद माना जाता है। जिस प्रकार राग से प्रमाद को प्राप्त हुआ जीव गुण दोष को नहीं सुनता है, उनका विचार नहीं करता है, उसी प्रकार जो गुप्ति और समिति के विषय में प्रमाद से युक्त होता है, उसे प्रमत्तविरत जानना चाहिए।” इस गुणस्थान को धारण करने वाला निर्ग्रन्थ मुद्रा का धारक होकर अट्ठाईस मूलगुणों का निर्दोष पालन करता है। यह गुणस्थान मात्र मनुष्यगति में पुरुषों को ही प्राप्त होता है। मुनिव्रत धारण करने की इच्छा रखने वाला अविरतसम्यग्दृष्टि या देशव्रती श्रावक अपने हाथ से केशलुञ्चन करते हुए शरीर से सर्वथा निर्मोहवृत्ति होता हुआ नग्नता को धारण करता है। आचार्य केशलोंच, आचेलक्य, प्रतिलेखन, शरीर पर निर्मोहवृत्ति को
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy