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________________ 27 अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 मन अधोगामी बनता है। अध्यात्म ही जीवन का परम सत्य है, जीवन की तर्ज है एवं देवत्व/ अमरत्व की ओर ले जाता है। जिस मनुष्य के जीवन से अध्यात्म और धर्म उससे दूर हो गया है, वे पीड़ित हैं चिंतित हैं। जो अध्यात्म और आत्मा के पथ पर चलते हैं, वे मन के मालिक बनते हैं, मन को जीत पाते हैं समझो वे मृत्यु को भी जीत लेते हैं, मन को परमात्मा के चरणों में मिटाकर जिया जा सकता है। मन को मिटाने का अर्थ अपने अहंकार (ईगो) क्रोधादि दुर्गुणों को मिटा देना है। यदि हम अपनी जीवन-चर्या पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से तथा सूक्ष्मता से दृष्टिपात करें तो हम पायेंगे कि हमारी अन्तश्चेतना बहुत ही क्षुद्र कोटि की वस्तुओं व व्यवस्थाओं में उलझी हुई है। हम येन-केन प्रकारेण अधिक से अधिक धन के लिए, अधिक से अधिक जानकारियों के लिए और अधिक से अधिक मान-सम्मान के मालिक होने के लिए प्रयासरत है। धन, व्यक्ति, वस्तु, विचार, आदि के परिग्रह की हमारी कोई सीमा नहीं है। हमारी मांग अधिक से अधिक की है। इतना ही नहीं हमने अपने मन को बहुत सारी अनावश्यक सूचनाओं से, अर्थहीन हो चुकी भूतकाल की स्मृतियों से तथा भविष्य की असम्बद्ध कल्पनाओं से भी भर लिया है। शरीर व मन स्तर पर आघटित हुए इस जटिल परिग्रह की आपा-धापी में स्वविषयक प्रश्न- मैं कौन हूँ? तथा अपने जन्म विषयक-क्यों? कैसे? कहाँ से? आदि प्रश्न हमारे मन में उठते ही नहीं है और यदि उठते हैं तो उनमें कोई गंभीरता हो भी तो इस तरह की आकांक्षाओं से भरे मन के द्वारा इन प्रश्नों के उत्तरों को नहीं जाना जा सकता। इस प्रकार शरीर व मन के स्तर पर आघटित हुई यह परिग्रह की अवस्था, स्वबोध और जन्म विषयक कथन्ता के बोध में बहुत बड़ी बाधा है। जब साधक भलीभाँति विचार करके शरीर व मन के स्तर पर पैदा हुई परिग्रह की मृग-मरीचिका से अपने आप को मुक्त कर लेता है तो प्रायः स्वतः ही उसे जन्म विषयक कथन्ता का बोध होने लगता है। मानव जीवन हमारे लिए सबसे बड़ी सौगात है। मनुष्य का जन्म ध्यान, तप, साधना, करके भगवान सम बनने के लिए हुआ है। यह जीवन ज्योतिर्मय बेहद कीमती है। जीवन को छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए जीना जीवन का अपमान है। अपनी मन व ध्यान की समस्त शक्तियों को तुच्छ कामों में व्यर्थ करना, व्यसनों एवं वासनाओं में जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद करना जीवन का तिरस्कार है। जीवन अनन्त है, हमारी शक्तियाँ भी अनन्त हैं और हमारी प्रतिभाएँ भी विराट हैं, लेकिन हम अपनी शारीरिक, मानसिक, व आध्यात्मिक शक्तियों का लगभग 5 प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं। हमारी अधिकांश शक्तियाँ सुप्त ही रह जाती हैं। यदि हम अपनी आंतरिक क्षमताओं से मन, ध्यान, साधना, योग और तप का पूरा उपयोग करें तो हम पुरुष से महापुरुष, युगपुरुष, मानव से महामानव बन सकते हैं। हमारी मानवीय चेतना से वैश्विक चेतना अवतरित होने लगती है, भगवान सम आलौकिक शक्तियाँ, सिद्धियाँ हमारी आत्मा के भीतर सन्निहित हैं। इस पृथ्वी पर मेरा जन्म आत्म कल्याण कर भगवान सम बनने के लिए हुआ है। -सहारा आफिस के सामने, वार्ड नं.15, तह. पथरिया जिला दमोह (म.प्र.)
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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