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________________ अनेकान्त 64/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2011 मन ( ध्यान में एक आवश्यक ) 25 -डॉ. संजय कुमार जैन एडवोकेट मन एक बहुत बड़ी ऊर्जा का स्रोत है, किन्तु उस पर नियन्त्रण न होने के कारण उस ऊर्जा का विभिन्न विचारों के रूप में बहिर्गमन होता रहता है, एवं दुरुपयोग भी होता रहता है। मन विद्युत के मेन स्विच की तरह है इसे बन्द कर दें तो इन्द्रिय- लम्पटता रूपी उपकरण स्वतः ही बन्द हो जाते हैं। संसार को जीतना आसान है, लेकिन अपने मन को जीतना ही सच्ची जीत है। मन भोगों से कभी तृप्त नहीं होता। मन की इच्छायें अग्नि कुण्ड सम कभी मनचाहा ईंधन डालने पर भी बुझती नहीं; उसे तृप्त करना है तो उस पर त्याग का अंकुश रखना पड़ेगा। मन आकांक्षाओं में जीता है, और आकांक्षाएँ अगणित होती हैं। यदि मन अनावश्यक छोड़ आवश्यकता में जीना प्रारम्भ कर दे तो आज ही तृप्त हो सकता है। मन को जीतना है, जीना है; तो हमें आवश्यकता में जीना होगा क्योंकि आवश्यकता की पूर्ति सीमित होने के कारण मन को जीतने की साधना सम्भव है। मन का ध्यान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। किसी का आलम्बन पर मन को केन्द्रित करना ध्यान है। एकाग्रचिन्तानिरोधः का अर्थ है एक ही अग्र अर्थात् मुख या विषय में चिन्ता को रोक देना। अन्य मतों में जो ध्यानं निर्विषयं मन ऐसी मान्यता है, उसका निरसन करते हुए जैनमत की अवधारणा है कि ध्यान का एक विषय मन और निचली अवस्था में एक विषयभूत मन की परिणति ध्यान है। किसी एक आलम्बन पर मन को केन्द्रित करना ध्यान है। मन के विकार से अशुभ ध्यान, अपध्यान, मन की पवित्रता से प्रशस्त ध्यान की सिद्धि, मन की एकाग्रता के अभाव ध्यान में बाधाएँ और पवित्र चिन्तन से चिन्ताओं, विकल्पों से मुक्ति इस प्रकार मन की विभिन्न अवस्थाएं हमारे ध्यान में बाधक व साधक बनती है। जैन दर्शन में तो ध्यान का लक्षण एकाग्र चिन्ता निरोध- किसी पदार्थ या विषय में स्थिर होना ध्यान है। अब वह ध्यान किस कोटि का है यह मन की शुद्धि और विशुद्धि पर निर्भर करता है। जैनदर्शन में मन एक अभ्यन्तर इन्द्रिय है। ये दो प्रकार की है- द्रव्य व भाव । हृदय स्थान में अष्टपांखुड़ी के कमल के आकार रूप पुद्गलों की रचना विशेष द्रव्य मन है। चक्षु आदि इन्द्रियवत् अपने विषय में निमित्त होने पर भी अप्रत्यक्ष व अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इसे इन्द्रिय न कहकर अनिन्द्रिय या ईषत् इन्द्रिय कहा जाता है। संकल्प-विकल्पात्मक परिणाम तथा विचार, चिन्तवन, आदिरूप ज्ञान की अवस्था विशेष भाव मन है। मन इन्द्रिय को सहायता करता है, उसी मन के द्वारा क्रमशः विशेष और क्रिया
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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