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________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 कारण पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं रह पाया है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम ग्रन्थों की प्रामाणिकता के लिए यह जरूर निश्चय कर लें कि वह आचार्य परम्परा से आगत कथन के अनुरूप है या नहीं तथा युक्ति से अबाधित है या नहीं? __ आधुनिक साधु परमेष्ठियों एवं अन्य पुरुषों के द्वारा लिखित वही साहित्य प्रमाण मानना चाहिए जो आचार्य परम्परा से आगत अर्थ के अनुकूल हो। क्योंकि छद्मस्थों का ज्ञान तभी प्रमाण है, जब वह परम्परापुष्ट हो। आवश्यकता इस बात की है कि एक निर्धारित समय के पश्चात् के साहित्य को आगम मानने से दूरी रखी जाये। वर्तमान में कुछ दिगम्बर वेषधारी डंके की चोट पर घोषणा कर रहे हैं कि जो हम कहते हैं, वही आगम है। मेरी प्रार्थना है समाज के कर्णधारों से, कि वे धार्मिक साहित्य में अपने द्रव्य का उपोग करते समय शास्त्रज्ञ परमेष्ठियों या आगम के अध्येताओं को अवश्य दिखालें। कहीं ऐसा न हो कि पुण्यार्जन के नाम पर वे आगमबाह्य साहित्य को छपा दें और उसे पढ़कर अज्ञजन जिनवाणी को विपरीत समझ लें। अर्हन्त और सिद्ध परमेष्ठी को श्री जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार की तात्पर्यवत्ति टीका में त्रिलोकगरु कहा है। किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण करने के कारण आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं की गुरु संज्ञा है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में कहा गया है- 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्गुरुतया गुरव इत्युच्यन्ते आचार्योपाध्यायसाधवः।' तीनों में पद की भिन्नता होने पर भी गुरुपना समान है। मूलाचार में जो आहार, वचन एवं हृदय का शोधन करके नित्य ही सम्यक् आचरण करते हैं, वे साधु भगवान् कहे गये हैं "भिक्कं वक्कं सोधिय जो चरदि णिच्च सो साहू। एसो सुट्ठिद साहू भणिओ जिणसासणे भयवं।।' साधु में चारित्र की प्रधानता होना आवश्यक कहा गया है। चारित्रहीन साधु का बहुश्रुतपना भी निरर्थक ही माना गया है। आजकल कुछ वक्तृत्व के धनी, सुभग नामकर्मोदय से मनोज्ञता को प्राप्त साधु
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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