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________________ 00 श्रुताराधक गृहस्थ विद्वानों के प्रति जिस तरह की अभद्र भाषा का प्रयोग कर रहे हैं वह चिन्तनीय है। उन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि विशाल भीड़ को तो मायावी भी जुटा सकते हैं। साधु जीवन में तो आत्मशोधन की प्रधानता रहना चाहिए। साधु जीवन, स्वाभाविक आत्मसुख की ओर प्रयत्नशील रहकर अपने चित्त को विषय सुखों से पराड्.मुख करके संसार रूप समुद्र के जल को सुखाने वाली आत्म ज्योति पर ही ध्यान धरना चाहिए। विषय विमुखं कृत्वा चेतो निसर्गसुखोन्मुखैविमलमतिभिध्येयं ज्योतिर्भवार्णवशोषकृत॥ बोधप्रदीप-३८॥ उनसे विनम्रतापूर्वक निवेदन है कि वे आत्ममीमांसा के इस श्लोक को भी स्मरण रखें कि 'देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। मायादिष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान्॥ अर्थात् देवों का आगमन, आकाश में गमन एवं चँवर आदि का वैभव तो मायावियों में भी देखा जाता है। अतः इस कारण तुम महान् नहीं हो। __ अभी कुछ दिन पूर्व कुछ आचार्य एवं साधु परमेष्ठियों के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे मिला। इनके प्रति मेरी अटूट श्रद्धा रही है और है किन्तु उनके प्रवचनों में अन्य साधुओं के प्रति जो कटाक्ष एवं व्यंग्य वाणों का प्रयोग देखने को मिला, वह सर्वथा असंभावित होने से खिन्नताजनक रहा। उन पूज्य परमेष्ठियों से मेरी सहस्रशः नमोऽतु पूर्वक प्रार्थना है कि वे आत्मसाधना एवं साहित्यसपर्या में ही निरत रहें तो ही समाज का कल्याण है। समाज तो ताली बजाना अपना कर्तव्य समझ रही है, फिर साधु चाहे कोई भी हो और कुछ भी कहे। किमधिकं सुविज्ञेषु। -डॉ० जयकुमार जैन
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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