SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क भवनत्रिक के देवों को धवला जी में 'भवनवास्यादिष्वधमदेवेषु' कहकर कुदेव या अधम देव माना गया है। अतः ध्यान देने की आवश्यकता है कि मन्दिरों में भगवान् के सेवक के रूप में स्थापित पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि देवगति के देवों को भगवान् की तरह पूजना कथमपि समीचीन नहीं है। भगवान् के भक्त होने से उनके प्रति साधर्मी का वात्सल्य रखा जा सकता है। वर्तमान समय में ऐसे विशालकाय जनलुभावन पोस्टर छप रहे हैं, जिनमें ऐहिक कामनाओं से श्रावक तो श्रावक साधु तक पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि की आराधना में तत्पर दृष्टिगत हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें अपनी मूल संस्कृति के संरक्षण की महती आवश्यकता है। श्री समन्तभद्राचार्य तो स्वयंभस्तोत्र में लिखते हैं न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः, पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः॥ हे नाथ ! पूजा से आपको कोई प्रयोजन नही है, क्योंकि आप वीतरागी हैं। निन्दा से आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि आप वैरभाव से रहित हैं। परन्तु फिर भी आपकी पुण्य गुणों की स्मृति हमारे चित्त को पापों से छुड़ाकर पवित्र कर देती है। रागी-द्वेषी देवी-देवताओं की आराधना में आकण्ठ डूबता जा रहा तथाकथित आर्षमार्गी जनों की टोली से प्रार्थना है कि वे आत्ममन्थन करें कि श्री समन्तभद्राचार्य में उनकी आस्था है या नहीं? वे जैन धर्मियों की अस्मिता को बचाना चाहते हैं या नहीं? जैनधर्म में तो अर्हन्त और सिद्ध परमेष्ठियों को ही पूज्यता की दृष्टि से देव माना गया है। संसार से मुक्ति की कामना करने वालों के लिए ये ही आराध्य हैं। __ 'शासनात् शास्त्रम्' जो ग्रन्थ करणीय- अकरणीय का अनुशासन करते हैं उनकी शास्त्र संज्ञा अन्वर्थ है। प्रामाणिक शास्त्रों को आगम कहते हैं। सर्वज्ञ देव के उपदिष्ट वचन, जो हमें गणधर एवं तदनन्तर आचार्य परम्परा से प्राप्त हैं, वे आगम कहलाते हैं। यह आगम अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य के रूप में द्वादश एवं चतुर्दश भेदों वाला था, जो कालदोष के
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy