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________________ अनेकान्त 64/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2011 सम्पादकीय संसार में मानवजन्म और उसमें भी सम्यक्त्व की प्राप्ति अति दुर्लभ है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने अपने दंसणपाहुड में 'दंसणमूलो धम्मो' कहकर सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल स्वीकार किया है। सम्यग्दर्शन के स्वरूप की आगमवेत्ताओं ने कभी आचरण की दृष्टि से तो कभी अध्यात्म की दृष्टि से विवेचना की है। आचरण प्रधानता को दृष्टि में रखकर श्री समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में लिखा है 'श्रद्धानं परमार्थनामाप्तागमतपोभृताम्। त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥४॥ अर्थात् परमार्थ (सच्चे) आप्त (देव), आगम (शास्त्र) और तपोभृत् (गुरु) का तीनमूढताओं से रहित, अष्टांग सहित एवं आठ मदों से रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यत: इस जगत् में तरह-तरह के विरोधी कथन करने वाले शास्त्रों, विविध स्वरूप वाले गुरुओं तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट अनेकविध आराध्य देवों की भक्ति देखी जाती है, अतः यह परीक्षा करना आवश्यक है कि सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का स्वरूप क्या है? क्योंकि इन्हें ही पूज्यता की कोटि में रखा गया है। देव शब्द का प्रयोग सामान्यतया तीन रूपों में दृष्टिगोचर होता है1. देवगति के भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव। 2. केवलज्ञान को प्राप्त सर्वज्ञ, वीतरागी एवं हितोपदेशी अर्हन्त देव। 3. आठों कर्मों से रहित निरंजन लोकाग्रवासी देहमुक्त सिद्ध परमात्मा। इनमें प्रथम देवगति के देव हमारे पूज्य नहीं कहे गये हैं। यद्यपि वैमानिकों में सर्वार्थसिद्धि के देव तथा पञ्चम स्वर्ग के लौकान्तिक देव एक भवावतारी तथा विजयादिक के देव दो मनुष्य भवावतारी होकर
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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