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________________ 18 अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 रात्रिभोजन के कारण : 1. रात्रिभोजन के कुप्रभावों की सही जानकारी का अभाव। 2. सामाजिक और नौकरी पेशे की अव्यवस्थाएँ। 3. कार्यालयों और दुकानों में भोजन अवकाश का समय निर्धारित न होना। 4. असमय में बालकों का स्कूल, कॉलेज और ट्यूशन आदि करना। 5. सुबह की चाय, नाश्ता, लंच आदि प्रारंभ होने से दिन में निर्धारित समय पर भूख नहीं लगना। 6. मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण का अभाव। 7. भौतिक समस्याओं की बढ़ती आवश्यकता और उसकी पूर्ति के कुप्रयास करना। 8. आर्थिक समस्याओं के समाधान हेतु रात-दिन श्रम करना। 9. सूर्य और कृत्रिम प्रकाश में अंतर की जानकारी का अभाव होना। 10. पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता का चरम सीमा पर प्रभाव। 11. विवाह, पार्टी आदि में सामूहिक रात्रिभोजन को देखकर रात्रिभोजन त्यागी को व्यंग्य, तर्क-कुतर्क करके जबरन रात्रि भोजन करने को बाध्य करना। 12. टीवी सिनेमा आदि पर रात्रि भोजन में मौज-मस्ती का प्रदर्शन और चाट, लारी, होटल, भोजनालय आदि में रात-दिन भोजन का उपलब्ध होना। रात्रिभोजन त्याग की आवश्यकता : रात्रिभोजन त्याग के महत्त्व को जानने के साथ-साथ हमें शारीरिक संरचना को जानना भी परम आवश्यक है। संसार के प्रत्येक प्राणियों के शरीर की संरचना भिन्न भिन्न प्रकार है, अलग अलग आकार प्रकार से भोजन करने और पचाने की प्रक्रिया होती है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य मानव शरीर है। वैज्ञानिक भी इस मानव शरीर के बारे में ऊहापोह में जुड़े हैं कि आखिर यह मानव शरीर इतने वर्षों तक निरंतर कैसे चलता रहता है जो संवेदना से युक्त होता है, जो अच्छे-बुरे का ज्ञान करा देता है जो अन्दर रासायनिक पदार्थों को तैयार करके आवश्यकता पड़ने पर बाहर निकालता रहता है जो अन्दर ही अन्दर अपना भोजन पचाकर आवश्यक ऊर्जा देता रहता है और बाहरी रोगाणुओं से अपनी सुरक्षा करता रहता है परन्तु जो इसकी प्रकृति के विरुद्ध आता है उसे तत्काल दण्ड भी देता है। अन्य धर्मों में रात्रिभोजन का निषेध : वर्तमान युग में रात्रिभोजन का सेवन प्रत्येक धर्म का अनुयायी कर रहा है। उसे इस विषय की जानकारी नहीं है कि रात्रिभोजन करने से धर्म के साथ स्वास्थ्य भी खराब होता है। वैदिक साहित्य में रात्रि भोजन के निषेध के लिए अनेक ग्रंथों में उल्लेख प्राप्त होता है। महाभारत के शांतिपर्व में रात्रिभोजन को नरक का द्वार बतलाते हुए कहते हैं कि नरकद्वाराणि चत्वारि प्रथमं रात्रिभोजनं। परस्त्रीगमनं चैव संधानानन्तकायिके। ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयन्ति सुमेधसः। तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते॥ नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिरः। तपस्विनां विशेषेण गृहिणां च विवेकिना॥
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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