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________________ 77 अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 ग्रामों में आज भी पानी को कुओं, तालाबों से निकालकर उसकी जीवाणी अर्थात् छने हुए त्रस जीवों को यथास्थान पहुँचाने के लिए कुन्दे की बाल्टी से कुएँ या तालाब में वापस पहुँचाते हैं। इसके साथ ही पानी निकालते समय ध्यान रखा जाता है कि पानी की जीवाणी भी उस जलाशय में डालनी चाहिए नहीं तो भिन्न प्रकृति का पानी और जीव होने के कारण जीवाणी वाले जीव मरण को प्राप्त हो जाएगें। इस प्रकार छने पानी के प्रयोग से स्वास्थ्य तथा धर्म दोनों की रक्षा होती है। अन्य दर्शनों में भी पानी छानने के लिए निर्देश देते हुए कहा है कि संवत्सरेण यत्पापं कुरुते मत्स्यवेधकः। एकाहेन तदाप्रोति अपूत जल संग्रही॥१७ अर्थात् एक मछली मारने वाला वर्ष भर में जितना पाप अर्जित करता है, उतना पाप बिना छने जल का उपयोग करने वाला एक दिन में कर लेता है। इसी प्रकार उत्तर मीमांसा में जल छानने की विधि का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि त्रिंशदंगुलप्रमाणं विंशत्यंगुलमायत। तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य गालयेच्चोदकं पिबेत्। तस्मिन् वस्त्रे स्थिता जीवा स्थापयेज्जलमध्यतः एवं कृत्वा पिबेत्तोयं स याति परमां गतिम्॥ अर्थात् तीस अंगुल लम्बे और बीस अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके उससे छानकर जल पियें तथा उस वस्त्र में जो जीव हैं उनको उसी जलाशय में स्थापित कर देना चाहिए जहाँ से वह जल लाया गया हो। इस प्रकार से जो मनुष्य जल पीता है वह उत्तम गति को प्राप्त होता है। अतः जैनधर्म एवं अन्य धर्मों के सिद्धान्तों में सामञ्जस्य देखने पर यह ज्ञात होता है कि पूर्व युग में जैनधर्म व्यक्तिगत किसी जाति का धर्म नहीं था वह सार्वभौमिक एवं धर्म निरपेक्ष था। रात्रिभोजन त्याग : जीवन में सुख का अनुभव करने के लिए स्वास्थ्य लाभ आवश्यक है। स्वास्थ्य लाभ से ही मानव जीवन तथा अन्य जीवों का जीवन सुखी और शान्त बन सकता है। इसके लिए एक कहावत चरितार्थ होती है कि पहला सुख निरोगी काया इस निरोगी काया के लिए प्राणी अनेक प्रयत्न करता है वह अपना पूरा जीवन शरीर को निरोगी बनाने तथा संभालने में लगा देता है। परन्तु यह शरीर फिर भी रोगी बना रहता है। इसका कारण एक ही है कि वह कार्य तो निरोगी होने के करता नहीं पर निरोगी बनना चाहता है। आचार्यों ने शरीर को निरोगी करने के लिए रात्रिभोजन त्याग करना जीवों के लिए आवश्यक बताया है। सभी जीवों में लगभग सभी शाकाहारी जीव तो रात्रि में आहार ग्रहण नहीं करते परन्तु मानव एक ऐसा मन विकसित प्राणी है जो जानकर भी रात्रि में आहार ग्रहण कर अपनी काया को रोगी तथा आयु को कम करता है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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