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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 51 दोनों हाथ घुटनों तक लम्बवत हों) रूप में प्रदर्शित है। मूलनायक के दोनों ओर दो चंवरधारी सेवक स्थानक मुद्रा में हैं जबकि पाद पीठिका पर सिंहाकृतियों सहित सुदर्शन चक्र का अंकन है। ज्ञातव्य है कि रामगढ़ नामक यह स्थल जैनधर्म के भेदवंशीय शासकों के काल में खूब फला-फूला। यहाँ 11वीं से 13वीं शती ई की जैन तीर्थकर मूर्तियाँ बहुतायत में मिली हैं जो इस भू-भाग में प्राचीन जैन मन्दिरों के विशाल अस्तित्व एवं उनके विकसित प्रभाव की स्पष्टतः सूचक मानी जा सकती हैं। इसी क्रम में अटरु से प्राप्त 9वीं सदी की उक्त संग्रहालय में प्रदर्शित 5231 सेमी. नाप की एक और मूर्ति तीर्थकर पार्श्वनाथ की उल्लेखनीय है। इसमें मूल नायक के छत्र रूप में परम्परागत सर्प फणावलियाँ हैं जबकि मूलनायक स्थानक अवस्था में है। कुचित केश एवं श्रीवत्स के चिह्न से युक्त इस मूर्ति के दोनों ओर छत्र के निकट गवाक्ष में अन्य तीर्थंकरों का अंकन है जिनकी मुद्रा पद्मावस्था एवं बद्धपद्मांजलि में है। इस मूर्ति के परिकर में चंवरधारी सेवक, मालाधारी गन्धर्व, गज शार्दूल सहित त्रिभंग मुद्रा में पद्महस्ता नर-नारियों का आकर्षक अंकन है। नीचे दायीं ओर अर्द्धसुखासन में बिजोरा फल लिए यक्ष तथा बायीं ओर अपनी गोद में एक शिशु को लिए मातृका शिशुमति यक्षणी का अनुपम दृष्टव्य हैं। ये सभी माननीय रूपों की मूर्तियाँ आकर्षक केशविन्यास तथा विभिन्न आभूषणों से सुसज्जित हैं। बारां जिले का पुरास्थल शेरगढ़ प्राचीन काल में कोषवर्धन नाम से इतिहास में विख्यात रहा है। यहाँ के साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि यहाँ प्राचीन काल से जैनधर्म का जो प्रभाव रहा वह आज भी जीवन्त है। कोटा के संग्रहालय में यहाँ के 1105 ई. के एक संरक्षित अभिलेख का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि तीर्थकर नेमिनाथ का महोत्सव यहाँ नये चैत्य में मनाया गया था। इस समारोह का संचालन वीरसेन ने किया था। यहाँ के एक अन्य 1191 के शिलालेख में यह भी उल्लेख है कि खण्डेलवाल श्रेष्ठि शांति के पुत्रों द्वारा रत्नत्रय (तीर्थकर शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरनाथ) की मूर्तियों का निर्माण किया गया तथा अपने पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धियों एवं कोषवर्धन (वर्तमान शेरगढ़) के गोष्ठियों के संघ में इनके प्रतिष्ठा समारोह का आयोजन किया गया। इसी क्रम में एक अन्य प्रभावोत्पादक मूर्ति सर्वतोभद्र की है। कुंचित केश युक्त यह मूर्ति 11x38 सेमी. माप की तथा 9वीं सदी की है। रक्त पाषाण पर निर्मित इस मूर्ति में जैन तीर्थकर चारों दिशाओं में देखते हुए अत्यन्त सुरम्य मुद्रा में खड़े हैं। तीर्थकरों की लम्बवत् लटकती कानों की लोबें, घुटने के नीचे जाती भुजाएँ (जिनकी उंगलियाँ विशेष मुद्रा में हैं) मूर्तिकला की महानता की द्योतक मानी जा सकती हैं। प्रतीत होता है जैनधर्म के समवसरण भावों को ध्यान में रखकर यह मूर्ति निर्मित की गई होगी। सर्वतोभद्र की ऐसी मूर्तियों का अंकन 7वीं-8वीं सदी से प्रारम्भ हुआ माना जाता है। जैनधर्म में इस मूर्ति को सभी ओर से मंगलकारी माना जाता है। संग्रहालय के संख्यांक 625 पर प्रदर्शित काकूनी से अवाप्त 12वीं सदी की 122x80 सेमी. माप की रक्त पाषाण मूर्ति तीर्थकर शांतिनाथ की है जो कार्योत्सर्ग मुद्रा में स्थानकावस्था में हैं। मूर्ति के परिकर भाग में आसनस्थ उपासक, गज शार्दूल सहित
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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