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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 की पीठिका पर धर्मचक्र के नीचे गज का अंकन है। यद्यपि मूर्ति के दोनों हाथ और स्कन्धों के भाग भग्न हैं, परन्तु इसके बाद भी इसका कलात्मक निर्माण भाव कम नहीं आंका जा सकता है। मूर्ति के ऊर्ध्व परिकर भाग की प्रथम पंक्ति के अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इसके मुख्य ताक में मूलनायक के लांछन चिह्न गज का अंकन है तथा इस चिह्न के दोनों ओर एक-एक जिनमूर्ति ध्यानावस्था में उत्कीर्ण है। इनके दोनों ओर उड़ीयमान मालाधार की मूर्तियाँ उकरी हुई हैं। परिकर भाग की द्वितीय पंक्ति का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इसके मध्य में मृदंग वादक तथा उसके दायें-बायें गजों का अंकन है। इन गजों के भी दायें-बायें छोरों पर एक ओर झल्लरी वादक तथा दूसरी ओर शंखनाद करते एक पुरुषाकृति दिखाई देती है। मूलनायक के शीर्षभाग के दोनों छोरों पर अप्रतियका तथा कमलहस्ता महाविद्या देवियों का अंकन है। इनके दायें-बायें दो कार्योत्सर्ग मुद्रा की जिनमूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। तीर्थकर अजितनाथ की पीठिका पर चामरधारी के नीचे द्विहस्ता यक्ष-यक्षी की मूर्तियाँ भी दिखाई देती हैं। संग्रहालय के संख्यांक 5 पर प्रदर्शित अटरु से प्राप्त तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति 130x77 सेमी. माप की है जो अति भव्य है। 10वीं सदी की इस मूर्ति में मूलनायक कार्योत्सर्ग मुद्रा में हैं तथा इसमें सर्प की कुण्डलियों को चरणों तक उकेरा गया है। शीश पर सप्त सर्पफणों की छत्र छाया है। छत्र के ऊपरी परिकर भाग में भग्न मृदंग वादक एवं उसके दोनों ओर गजरोही का अंकन है। इसके आसपास मालाधार हैं। मूलनायक के सप्तसर्प फणरूपी छत्रवली के दायीं तथा बायीं ओर ताक बने हुए हैं जिनमें ध्यानावस्था की मूर्तियाँ हैं। जबकि आसन के निकट भग्न चंवरधारी एवं सप्तसर्पफणों से युक्त स्त्री-पुरुष का अंकन है। इसी क्रम में उक्त स्थल से एक अन्य तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रदर्शित है। 50x85 सेमी. माप की यह मूर्ति ध्यानावस्था में है। इसके शीष पर छत्ररुपी सप्तसर्प फणावलियाँ हैं। परिकर में भी ऊपर की ओर छत्र तथा उसके दोनों ओर गजों का अंकन है। मूलनायक की पीठिका पर इसके निर्माण का संवत् 1188 पठन में आता है। इसके दोनों ओर चंवरधारी पुरुषाकृतियाँ हैं, साथ ही एक-एक ध्यानस्थ जिन मूर्तियों का अंकन है। पीठिका के मध्य में सरस्वती समान कोई देवी (संभवतः शांतिदेवी) तथा दायीं ओर गज व बायीं ओर सिंह का अंकन है। पीठिका पर 4 पंक्तियों का निम्न प्रकार से एक लेख पठन में आता है : "रीनवझदेवनाऊसट त॥ ८८ आषाढ़वदि ॥ का अडालान पेरवग्रतिन सा लमनदयारने:पल्यश्र ॥" तीर्थकर पार्श्वनाथ की बारां जिले के रामगढ़ स्थल से अवाप्त एक 9वीं सदी की 21x16 सेमी. नाप की रक्त पाषाण निर्मित मूर्ति आजानबाहु (जिस व्यक्ति, महापुरुष के
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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