SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 प्रतिमा बनाने के जो-जो लक्षण शिल्पिशास्त्रों में वर्णन किये गये हैं उनसे युक्त अंग, उपांग सहित तथा शास्त्रानुसार प्रतिष्ठित किये हुए जो जिनबिम्ब (जिनप्रतिमा) हैं वे पूजन योग्य हैं। यदि कोई जिनबिम्ब खण्डित अर्थात् किसी अंग से रहित हो जाये परन्तु यदि वह अत्यन्त जीर्ण (प्राचीन) है अथवा किसी प्रकार के अतिशय से युक्त है तो वह पूजनीय है परन्तु जो प्रतिमा मस्तक रहित है और वह प्राचीन तथा अतिशय युक्त भी है तो पूजनीय नहीं है। ऐसी प्रतिमाओं को मन्दिरादि में न रखकर नदी, समुद्रादि जहाँ कहीं बहुत गहरा जल हो वहां निक्षेपित (प्रवाहित) कर देना चाहिए। प्रतिमादर्शन पुण्य प्राप्ति में कारण धर्मसंग्रह श्रावकाचार में लिखा है कि कोई यह कहे कि अरे! ये प्रतिमा तो अचेतन (जड़) है क्या इनके पूजन से जीवों को पुण्य का बन्ध होगा? तो उन लोगों को समझाना चाहिए कि शान्त (वीतरागस्वरूप) निश्चल विराजमान तथा मोक्ष के स्वरूप को बताने वाली जिनप्रतिमा को देखकर जीवों का जो शांत परिणाम होता है वह परिणाम पुण्य के लिए कारण होता है। पूर्वकाल में जितने भव्यात्मा सिद्ध हुए हैं और आगे सिद्ध होंगे तथा वर्तमान में होने वाले हैं वे सब इसी स्थिति से हुए हैं, होंगे तथा होने वाले हैं ऐसा जो आत्मा का परिणाम होता है वही पुण्य का उत्पादक होता है। इस अपार संसार में इन प्रतिमाओं के समान परिग्रह छोड़कर किस समय शान्त स्वभाव वाला, स्थिरासन तथा मोक्ष हो जाने योग्य मैं होऊँगा यह जो आत्मा में संकल्प होना है वही पुण्य प्राप्ति का कारण है। इन कारणों से प्रतिमा का पूजना पुण्य का हेतु है इसलिए श्रावक लोगों को भक्तिपूर्वक अकृत्रिम (अनादिकाल से चली आई) तथा कृत्रिम (शास्त्रानुसार शिल्पिकारों से निर्माण कराकर प्रतिष्ठा की हुई) प्रतिमायें निरंतर पूजनी चाहिए क्योंकि इन प्रतिमाओं में साक्षाज्जिन भगवान् के गुणों का संकल्प (निक्षेप) होता है। इसलिए जिसने जिनप्रतिमाओं की पूजा की है समझना चाहिए कि उसने साक्षाज्जिन भगवान् की पूजा की है। ___ 'प्रश्नोत्तर श्रावकाचार' में लिखा है कि श्री जिनेन्द्रदेव का भक्त जो भव्यपुरुष जिनबिम्बों का निर्माण करता है वह नित्यपूजा आदि के संबन्ध में अपरिमित पुण्य को प्राप्त करता है, उसके पुण्य को कोई जान भी नहीं सकता। जो पुरुष महापुण्य को देने वाली भगवान् की पूजा प्रतिदिन करता है, उसके लिए इन्द्रपद अथवा चक्रवर्ती का पद कुछ कठिन नहीं है। विद्वान् लोग जब तक उस प्रतिमा की पूजा करते रहते हैं तब तक उसके निर्माण करने वाले कर्ता को पुण्य की प्राप्ति होती रहती है। और भी लिखा है यस्य गेहे जिनेन्द्रस्य बिम्बं न स्याच्छुभप्रदम्। पक्षिगृहसमं तस्य गेहं स्यादतिपापदम्॥ १८५ जिसके घर में पुण्य उपार्जन करने वाली भगवान् जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा नहीं है उसका घर पक्षियों के घोंसले के समान है और वह अत्यन्त पाप उत्पन्न करने वाला है। वे लोग तीनों लोकों में धन्य हैं जो केवल धर्म पालन करने के लिए भगवान् की पूजा करते हैं, उनकी स्तुति करते हैं और जिनभवन अथवा जिनबिम्बों का निर्माण कराते हैं। जो भव्यपुरुष चौबीस तीर्थकरों की उत्तम प्रतिमाओं का निर्माण कराता है वह स्वर्ग
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy