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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 45 के राज्य को एवं मनुष्य लोक के राज्य को पाकर अन्त में मोक्ष का साम्राज्य प्राप्त कर लेता जो भव्यपुरुष स्वर्ण की, चांदी की, रत्नों की अथवा पाषाणादि की उत्तम जिन प्रतिमा बनवाता है उसके धर्म और सुख देने वाली लक्ष्मी प्राप्त होती है। गृहस्थों का बिम्ब प्रतिष्ठा के समान और कोई धर्म नहीं है क्योंकि बिम्ब प्रतिष्ठा में अनेक जीवों का उपकार होता है और धर्म रूपी महासागर की वृद्धि होती है। जो भव्य जीव बिम्ब प्रतिष्ठा कराता है वह श्रेष्ठ धर्म की वृद्धि का कारण होता है इसलिए वह इन्द्र और चक्रवर्ती के सुख भोगकर अन्त में मोक्षरूप महावृद्धि को प्राप्त करता है। जो बुद्धिमान श्री जिनेन्द्रदेव की उत्तम प्रतिष्ठा करते हैं वे तीर्थकर का परम पद पाकर मुक्तिरूपी ललना का सेवन करते हैं। प्रतिष्ठा में जितनी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा होती है और उनकी जबतक नित्यपूजा आदि होती रहती है तब तक उनके कर्ताओं को धर्म की प्राप्ति रहती है। जो भव्य जीव प्रतिष्ठा कराते हैं वे देव, विद्याधर सबके द्वारा पूज्य होते हैं, स्तुति और वंदना के योग्य होते हैं और इस लोक तथा परलोक दोनों लोकों में महासागर के समान महा सुख को प्राप्त होते हैं। बहुत कहने से क्या मनुष्य प्रतिष्ठा कराता है, संसार में उसी का जन्म सफल है क्योंकि प्रतिष्ठा धर्म, अर्थ और सुख देने वाली है। आचार्य वसुनन्दि लिखते हैं जिणपडिमई कारावियई संसारहं उत्तारु। गमणट्ठियह तरंडउ वि अह व ण पावइ पारु। 11/112 भवणइं कारावियइं लब्भइ सग्गि विमाणु। अह टिक्कई आराहणइ होइ समीहिइ ठाणु॥ 11/113 जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित कराने से जीव संसार के पार उतरता है अथवा गमन में उद्यत पुरुषों को जहाज क्या पार नहीं पहुंचाता है? पहुंचाता ही है। जिनभवन को बनवाने से मनुष्यों को स्वर्ग में विमान प्राप्त होता है तथा जिनभवन की टोंक (छाप) और आराम (पलस्तर) करने से समीहित स्थान की प्राप्ति होती है। मूर्ति-मूर्तिमान का दिशा संकेत करती है। मूर्ति किसी व्यक्ति की रुचि का मापदण्ड है जैसी रुचि, संस्कार और लक्ष्य होता है, वह उसके अनुरूप देवालय में (मंदिर) मूर्ति किसी के दर्शनार्थ जाता है और वहां उस मूर्ति में मूर्तिमान की भावना करके उसकी स्तुति और पूजा करता है। स्तुति, पूजा द्वारा मन्दिर के परमात्मा को जागृत या प्रसन्न नहीं करते हैं वरन् अपने परमात्मा को जागृत और प्रसन्न करते हैं जो अंतर में विद्यमान हैं। वस्तुतः मूर्ति के माध्यम से अपने परमात्मा की ही स्तुति पूजा की जाती है। मेरा परमात्मा मैं ही हूँ। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है यः परमात्मा स एवाऽहं, योऽहं सः परमस्ततः। अहमेव मयोपास्यः नान्यः कश्चिदिति स्थितिः॥ जो परमात्मा है वह मैं ही हूँ। जो मैं हूँ वही परमात्मा है। मैं अपने द्वारा ही उपास्य हूँ अर्थात् मुझे अपने आप अपनी उपासना करनी है। इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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