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________________ अनेकान्त 64/3, जुलाई-सितम्बर 2011 43 लाभ नहीं है और जीवों की उत्पत्ति अधिक होने से अनेक दोषों की संभावना है। अतः जिनमंदिर के ध्वजा से रहित होने पर पूजन-हवन और जप आदिक सर्व विलुप्त हो जाते हैं। जिनमंदिर पर ध्वजारोहण करना चाहिए जिस जिनबिम्ब को पूजते हुए एक सौ वर्ष व्यतीत हो गये हैं और जिस जिनबिम्ब को उत्तम पुरुषों ने स्थापित किया है, वह जिनबिंब यदि अंगहीन है तो भी पूज्य है, उसका पूजन निष्फल नहीं है। इस विषय में प्रतिष्ठा शास्त्रों में ऐसा कहा है- जो जिनबिंब शुभ लक्षणों से युक्त हो, शिल्पिशास्त्र में प्रतिपादित नाप-तौल वाला हो, अंग और उपांग से सहित हो और प्रतिष्ठित हो, वह यथायोग्य पूजनीय है किन्तु जो जिनबिम्ब नासा, मुख, नेत्र, हृदय और नाभिमण्डल इतने स्थानों पर यदि अंगहीन हो तो वह प्रतिमा नहीं पूजनी चाहिए। यदि कोई प्रतिमा प्राचीन हो और अतिशय संयुक्त हो, तो वह अंगहीन भी पूजनी चाहिए किन्तु शिर हीन प्रतिमा पूज्य नहीं है उसे नदी-समुद्रादिक में विसर्जित कर देना चाहिए। प्रतिमा स्वरूप- जयसेन प्रतिष्ठा-पाठ में प्रतिमा के स्वरूप के संबन्ध में लिखा है संस्थान-सुन्दर मनोहर रूपमूर्ध्व प्रालंबितं ह्यवसनं कमलासनं च। नान्यासनेन परिकल्पिमीशबिंबमोविधौ प्रथितमार्यमतिप्रपन्नैः। वृद्धत्व-बाल्यरहितांगमुपेतशान्तिं श्रीवृक्षभूषिहृदयं नखकेशहीनं। सद्धातुचित्रदृषदां समसूत्रभागं वैराग्यभूषितगुणं तपसिप्रशक्तम्॥ सांगोपांग, सुन्दर, मनोहर, कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन, दिगम्बर, युवावस्था, शान्तिभावयुक्त, हृदय पर श्रीवत्स चिह्न सहित,नख केशहीन, पाषाण या अन्य धातु द्वारा रचित, समचतुरस्रसंस्थान एवं वैराग्यमय प्रतिमा पूज्य होती है। उक्त लक्षणों में अर्हन्त प्रतिमा के अष्ट प्रातिहार्य और तीर्थकर का चिह्न होना चाहिए। सिद्धप्रतिमा प्रतिष्ठित कराना हो तो अर्हन्त प्रतिमा के समान ही सांगोपांग होना चाहिए। केवल प्रातिहार्य और चिह्न न होकर उसके नीचे सिद्ध प्रतिमा खुदवा देना चाहिए। यथा सिद्धेश्वराणां प्रतिमापि योज्या। सत्प्रातिहार्यादि विना तथैव॥ प्रतिमा नासाग्रदृष्टि और क्रूरतादि 12 दोषों (रौद्र, कृशाङ्ग, संक्षिप्तांग, चिपिट नासा, विरूपक नेत्रहीन मुख, महोदर, महाहृदय, महाअंश, मापकटी, हीन जंघा, शुष्क जंघा) से रहित होनी चाहिए। पद्मासन प्रतिमा- इसका माप 5 अंगुल होता है। बैठी प्रतिमा के दोनों के घुटने का सूत्र का मान, दाहिने घुटने से बायें कन्धे तक और बायें घुटने के दाहिने कंधे तक दोनों तिरछे सूत्रों का मान तथा सीधे में नीचे में ऊपर के शान्त भाग तक लम्बे सूत्र का मान ये चारों भाग समान होना चाहिए। 13"+13"+13"+13"=52 दोनों हाथ की अंगुली के और पेट का अन्तर 4 भाग रखें। कोहनी के पास 2 भाग का उदर से अन्तर और पोंची से कोहनी तक शोभानुसार हानिरूप रखें। नाभि से लिंग 8 भाग नीचा, 5 भाग लंबा बनाये तथा लिंग के मुख के नीचे से अभिषेक के जल का निकास दोनों पैरों के नीचे से चरण चौकी के ऊपर करें।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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