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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 के प्रामाणिक शब्दकोशों में भी इसका उल्लेख नहीं है। किन्तु जैन संस्कृत वाङ्मय के सिंहावलोकन से पता चलता है कि आगमयुग के बाद ही अनेकान्त स्थापना युग में सिद्ध स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने ग्रंथ 'युक्त्यनुशासन' में सर्वोदय तीर्थ का प्रयोग किया है सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामन्तकर निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव॥६१॥ अर्थात् हे प्रभु! आपका तीर्थ, शासन सर्वान्तवान् है और गौण तथा मुख्य की कल्पना को साथ में लिए हुए हैं। जो शासन वाक्यधर्मों में पारस्परिक अपेक्षा का प्रतिपादन नहीं करता, वह सर्वधर्मों से शून्य है। अतः आपका ही यह शासनतीर्थ सर्व दु:खों का अंत करने वाला है, यही निरन्त है और यही सभी प्राणियों के अभ्युदय का साधक ऐसा सर्वोदय तीर्थ है। यहाँ सर्वोदय तीर्थ-विचार तीर्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यही धर्म तीर्थ भी है। यही जैन तत्त्वज्ञान का मर्म है। सर्वोदय तीर्थ अनेकान्तात्मक शासन के रूप में व्यवहृत हुआ है। अनेकान्त विचार ही जैनदर्शन, धर्म और संस्कृति का प्राण है और यही इसका सर्वोदयी तीर्थ भी है। अनेकान्तदृष्टि के मूल में दो तत्त्व हैं- (1) पूर्णता (2) यथार्थता जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप में प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है। किन्तु पूर्ण रूप से त्रिकाल बाधित यथार्थ का दर्शन दुर्लभ है। देश-काल-परिस्थिति, भाषा और शैली आदि अनिवार्य भेद के कारण भेद का दिखायी देना अनिवार्य है फिर साधारण मनुष्य की बात ही क्या? साधारण मनुष्य यथार्थवादी होकर भी अपूर्णदर्शी होते हैं। यदि अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी दूसरे की बात सत्य है, अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी अपनी बात सत्य है; तो दोनों को न्याय कैसे मिल सकता है? इसी समस्या के समाधान के लिए अनेकान्त दृष्टि का उद्भव हुआ जिसकी मुख्य बातें निम्न प्रकार हैं (1) राग और द्वेषजन्य संस्कारों से ऊपर उठकर मध्यस्थ भाव रखना। (2) जब तक इस प्रकार के तटस्थ एवं मध्यस्थ भाव का पूर्ण विकास न हो, तब तक उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा करना। (3) विरोधी पक्ष के प्रति आदर रखकर उसके भी सत्यांश को ग्रहण करना। (4) अपने या विरोधी के पक्ष में जहाँ जो ठीक ऊंचे उनका समन्वय करना। इस प्रकार अनेकान्त दृष्टि के द्वारा हम एक नयी 'समाज मीमांसा' और नये 'समाज तर्क' के अविष्कार की ओर बढ़ सकते हैं और उसके द्वारा समाज में समन्वय लाया जा सकता है। यह ठीक है कि चूंकि दार्शनिक और आध्यात्मिक साधना में ही अनेकान्त दृष्टि आयी किन्तु अब समाज साधना में इनके प्रयोग को आगे बढ़ाना चाहिए। यही वह जीवन्त अनेकान्त होगा जिसका उपयोग एक जीवन दर्शन की तरह होगा। जो सही अर्थों में जीवन को जीता है वह वास्तव में 'अनेकान्त' को जीता है। हम सभी का यह अनुभूत एवं ज्ञात विषय है कि जीवन बहुआयामी है। जीवन या समाज की व्याख्या किसी
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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