SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 ग्रन्थ परिचय जैन ध्यान-योग के लिए 'ज्ञानार्णव' अति उपयोगी ग्रंथ है। इसमें कुल 2230 श्लोक हैं जिन्हें राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला से प्रकाशित संस्करण (1981) में 42 सर्गों एवं जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर से प्रकाशित संस्करण (1998) में 39 सर्गों में विभाजित किया गया है। सर्गों का विभाजन ग्रंथकार के बजाय टीकाकारों द्वारा किया गया प्रतीत होता है। ग्रंथ का नाम ही स्वयं की सार्थकता व्यक्त करता है- 'ज्ञानार्णव' अर्थात् ज्ञान का समुद्र। ध्यान का वर्णन होने के कारण ग्रंथकार द्वारा इसे ध्यानशास्त्र भी कहा गया है। अन्य विषयों का वर्णन भी ध्यान के प्रसंग के अन्तर्गत ही किया गया है। ग्रंथकर्ता का परिचय ज्ञानार्णव जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को रचकर भी आचार्य शुभचन्द्र ने अपना कोई परिचय नहीं दिया है। यह उनकी निरभिमानता का द्योतक है। न कवित्वाभिमानेन न कीर्तिप्रसरेच्छया। कृतिः किन्तुमदीयेयं, स्वबोधायैव केवलम्॥ उक्त अभिप्राय को ज्ञानार्णव में व्यक्त किया गया है जिसे मात्र शिष्टता न समझकर आंतरिक भावना समझना चाहिए। ग्रंथ के परिशीलन से यह कहा जा सकता है कि आचार्य शुभचंद्र बहुत विद्वान् एवं प्रतिभा संपन्न कवि भी थे। ग्रंथ की रचना शैली एवं अनेक विषयों के साथ इतर संप्रदायों की चर्चा एवं समीक्षा से उनकी बहुश्रुतता का अनुमान लगाया जा सकता है। ग्रंथ में प्राचीन ग्रंथों का आधार एवं समावेशन से उनकी अध्ययनशीलता प्रकट होती है। ज्ञानार्णव के निरंतर अध्ययन में रहने के कारण ज्ञात है कि यह ग्रंथ आचार्य शुभचन्द्र का है। इस स्थिति में समय विचार हेतु पूर्ववर्ती आचार्यों का इन पर प्रभाव एवं इनका उत्तरवर्ती आचार्यों पर प्रभाव एक मात्र आधार है। इस आधार पर इनका समय विक्रम की 11वीं-12वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। तृतीय अध्याय इस अध्याय में ज्ञानार्णव में वर्णित योग के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। इसके अन्तर्गत अनुप्रेक्षा, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र- पंचमहाव्रत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति, आसनजय, प्राणायाम और प्रत्याहारधारणा का वर्णन किया गया है। जैन योग का वर्णन करते हुए योग को दो रूपों- कर्मबंध और कर्म-संवर निर्जरा के रूप में स्वीकार किया गया है। योग को ध्यान की पृष्ठभूमि के रूप में भिन्न रूप से स्वीकार किया गया अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा का अर्थ है किसी वस्तु या विषय को बार-बार चिंतन मनन करते हुए देखना। अनुप्रेक्षा से ध्यान की पृष्ठभूमि तैयार होती है। अनित्यादि विषयों के चिंतन से जब चित्त एकाग्र होता है तो वह धर्मध्यान कहलाता है। यह प्रशम, वैराग्य, संवेग की वृद्धि एवं
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy