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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 प्रथम अध्याय इस अध्याय में भारतीय ध्यान योग की तीन प्रमुख धाराओं- वैदिक परंपरा, बौद्ध परंपरा, जैन परंपरा का परिचय दिया गया है। वैदिक ध्यान-योग वैदिक परंपरा के योग विषयक ग्रंथों में आध्यात्मिक विकास एवं ध्यान योग की चर्चा मिलती है। योग शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद (1/5/3) में मिलता है जहाँ इसका अर्थ मात्र जोड़ना है। ध्यान-योग का उल्लेख योगपद्धति, संहिता, ब्राह्मणग्रंथों तथा उपनिषदों में हुआ है लेकिन ध्यान योग को व्यवस्थित स्वरूप महर्षि पतञ्जलि ने प्रदान किया है। पतञ्जलि के द्वारा रचित 'योगसूत्र' पर अनेक टीकायें भी लिखी गयी हैं जिनमें व्यासभाष्य सबसे अधिक प्रामाणिक माना गया है। वैदिक परंपरा के उपनिषदों, महाभारत, गीता, स्मृतिग्रंथों, भागवत् पुराण और शैवागम आदि में ध्यान योग का वर्णन प्राप्त होता है। बौद्ध ध्यान-योग वैदिक ध्यान-योग की भाँति ही बौद्ध परंपरा में भी ध्यान-योग पर साहित्य उपलब्ध है। यहां साधना के लिए ध्यान-योग को अनिवार्य माना गया है। क्योंकि यह नैतिक आचार-विचार के द्वारा चरित्र को विकसित करने का माध्यम है। बौद्धग्रंथ दीर्घनिकाय, विशुद्धिमग्ग, मज्झिमनिकाय और मिलिन्दप्रश्न आदि में ध्यान-योग का विशद वर्णन है। जैन ध्यान-योग जैनदर्शनानुसार यह जीव अनादि काल से कर्मबंध के कारण इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है। यदि यह जीव कर्मबंध से मुक्त होकर स्व-स्वरूप की पहचान करना चाहता है तो उसे आत्मस्वरूप पर श्रद्धा कर उसी में लीन होना चाहिए। मुक्ति के उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं। सम्यग्दर्शन मुक्ति का प्रथम सोपान है जो कि जीवादि सात तत्त्वों के श्रद्धान से प्राप्त होता है। इन तत्त्वों में छठवाँ तत्त्व निर्जरा है जिसका कारण तप है। तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा गया है तपसा निर्जरा च। तप के बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद हैं प्रत्येक के छह-छह प्रभेद भी हैं। आभ्यन्तर तप के 6 प्रभेदों में ध्यान भी एक भेद है। आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल यह ध्यान के चार भेद हैं। प्रारंभ के दो ध्यान अप्रशस्त एवं शेष दो प्रशस्त ध्यान हैं। प्रशस्त ध्यान ही निर्जरा का कारण है। अप्रशस्त ध्यान संसारवर्द्धक है। अतः शुभ ध्यान ही ध्येय है। ध्यान के पूर्व यहां योग के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, समिति, गुप्ति, अनुप्रेक्षा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, आसनजय इत्यादि को स्वीकृत किया गया है। द्वितीय अध्याय द्वितीय अध्याय में ज्ञानार्णव और उसके कर्ता आचार्य शुभचन्द्र का परिचय दिया गया है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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