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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 63 वाक्य को सुनकर जंगल में गवय को देखकर उससे गवय संज्ञा के संबन्ध को जान लेना उपमान है। यह भी स्व-पर प्रतिपत्ति विषय में अक्षर और अनक्षर श्रुत में अन्तर्भूत हो जाता है। शब्द प्रमाण तो श्रुत ही है।" भगवान् वृषभदेव ने यह कहा इत्यादि प्राचीन परंपरागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है। इसका भी श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव होता है। 'प्रकृति पुष्ट यह मानव दिन में नहीं खाकर भी जीता है' इस वाक्य को सुनकर अर्थात् 'यह रात्रि में खाता है' इस प्रकार रात्रिभोजन का ज्ञान कर लेना अर्थापत्ति है। "चार प्रस्थ का आढ़क होता है" इस ज्ञान के होने पर 'आधे आढ़क का एक कुड़व होता है' ऐसी संभावना संभव नामक प्रमाण है। वनस्पतियों में(तृण, गुल्म आदि के) स्नेह, पर्ण, फलादि के अभाव को देखकर अनुमान लगाना कि यहां वर्षा नहीं हुई है यह अभाव प्रमाण है। इन सब अनुक्त अनुमान समान अर्थापत्ति आदि प्रमाणों का श्रुतज्ञान में ही अन्तर्भाव है क्योंकि सभी उक्त विषयों में विशेष रूप से तर्कणा-ऊहन है। जहाँ तर्कणा/चिंतन हो वहाँ श्रुतज्ञान ही होता है। इस प्रकार श्रुतज्ञान की दार्शनिकता को तत्त्वार्थवार्तिक आदि अनेक ग्रंथों में प्रतिपादित नय-निक्षेप-प्रमाण, कारण-कार्य आदि की विवेचना पूर्वक वर्णित किया गया है। विवेचना श्रुतज्ञान के सर्वातिशायी माहात्म्य को प्रस्तुत करने वाली होने से भी अत्यधिक उपयोगी है। संदर्भ: 1. श्रुतज्ञान विषयोऽर्थः श्रुतम्। तत्त्वाथवार्तिक 2/21 2. सवार्थसिद्धि 1/9/14/1 श्रुतशब्दो जहत्स्वार्थवृत्ती रूढ़िवशात् कुशलशब्दवत्।। तत्त्वार्थवार्तिक 1/20/1 सवपि अणेयत्तं परोक्खरूवेण जं पयासेदि। तं सुयणाणं भण्णदि संसय पहुदीहि परिचत्त।। का.आ. 262 5. तत्त्वार्थवार्तिक 1/9/27-28 6. धवला 1/1/1, 2/13/5 7. पञ्चास्तिकाय गाथा 41 की तत्त्वप्रदीपिका टीका। 8. मतिपूर्व श्रुतं प्रोक्तमवस्पष्टार्थतर्कणम्। तत्पर्यायादि भेदेन व्यासाद विंशतिधा भवेत्।। तत्त्वार्थसार 1/24-25 9. पञ्चास्तिकाय 99 तात्पर्यवृत्ति 10. आप्तमीमांसा 105 11. प्रवचन, प्रवचनीय, प्रवचनार्थ, गतियों में मार्गणता, आत्मा, परंपरा, लब्धि, अनुत्तर,प्रावचन, प्रवचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचनसन्निकर्ष, नयविधि, भंगविधि, पृच्छा विधि, तत्त्व पूर्ण आदि। धवला 13/280 12. प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति 235, प्रवचनसार 33 की तत्त्वप्रदीपिका वृत्तिः पृष्ठ 76 13. धवला पु. 9/57 14. तत्त्वार्थवार्तिक 1/20/7 15. केवलस्य सकल श्रुतपूर्वकत्वोपदेशात्। श्लोकवार्तिक 3/1/9/33/27/3 16. विणएण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं। तमुअ वट्ठदि परभवे केवलणाणं हि आवहदि।। मूलाचार 887
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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