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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 न्यायदर्शन की मान्यता है कि ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है। एक ज्ञान दूसरे ज्ञान से जाना जाता है, क्योंकि वह प्रमेय है, जैसे घट आदि। इस मान्यता को अस्वीकारते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना दीपक के साथ व्यभिचार रूप है क्योंकि प्रदीप अपने आप प्रमेय या जानने योग्य ज्ञेय है, उसके प्रकाश के लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान भी अपने आप ही अपने आत्मा को प्रकाश करता है, उसके लिए अन्य ज्ञान के होने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान स्वयं स्व-पर प्रकाशक है। यदि ज्ञान दूसरे ज्ञान से प्रकाशता है, तब वह ज्ञान फिर अन्य ज्ञान से प्रकाशता है, ऐसा माना जायेगा तो अतीत आकाश में फैलने वाली और जिसका दूर करना अतिकठिन है सो अनवस्था प्राप्त हो जायेगी। जो मूलक्षयकारिणी होती है। इसलिए जिनमत द्वारा मान्य ज्ञान स्व-पर प्रकाशता युक्त है। स्व-पर प्रकाशक स्वरूप श्रुतज्ञान अनादि-निधन और सादि-सान्त है क्योंकि संपूर्ण श्रुत द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से किसी के द्वारा रचित नहीं होने से अनादि निधन है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अनुवादद्वार से रचित होने से सादि-सान्त भी है। रचना रूप श्रुत 1634837888 मध्यम पदों से सृजित हुआ। समस्त श्रुत के अक्षरों का प्रमाण 184 शंख 46 पद्म 74 नील 40 खरब 70 करोड़ 95 लाख 51 हजार 615 है। यह अपरिमेय अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ की विवक्षा से भी वर्णित है, उनमें परार्थ श्रुतज्ञान द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत नय, अर्थनय, शब्दनय, निश्चय-व्यवहार आदि को लिए हुए अनेक नय रूप है। अंग पूर्वगत श्रुतज्ञान का धारक ही श्रुतज्ञानी होता है। श्रुतज्ञानी इसी श्रुतज्ञान के आश्रय से श्रेणी के प्रारंभ से दसवें गुणस्थान के अन्त तक द्रव्य, गुण, पर्याय आदि नाना भेद रूप वस्तु का ध्यान करते हैं। इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्याय, नय, निक्षेप आदि का वर्णन वर्णन भी श्रुतज्ञान की दार्शनिकता का ही परिचायक है। आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विस्तृत वर्णन किया है। अन्य (जैनेतर) दार्शनिकों द्वारा मान्य अनुमानादि प्रमाणों को श्रुत का विषय स्वीकारते हुए श्रुतज्ञान के अन्तर्भूत प्रतिपादित किया है। वे लिखते हैं "अनुमान आदि का अन्तर्भाव श्रुत में हो जाता है, अत: उनका पृथक् उपदेश नहीं किया गया है। प्रत्यक्ष पूर्वक अनमान तीन प्रकार है- पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट। अग्नि और धूम के अविनाभाव को जिस व्यक्ति ने पहले ग्रहण कर लिया है, उसे पीछे धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान होना पूर्ववत् अनुमान है। जिसने पूर्व में सींग और सींग वाले के संबन्ध को देखा है, पश्चात् सींग के रूप को देखकर सींग वाले का अनुमान होना शेषवत् अनुमान है। देवदत्त को देशान्तर की प्राप्ति गमन पूर्वक देखकर सूर्य में देशान्तर प्राप्तिरूप हेतु से गति का अनुमान करना सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। इन तीनों प्रकार के अनुमानादिक का स्वप्रतिपत्तिकाल में अनक्षर श्रुत में अन्तर्भाव हो जाता है तथा परप्रतिपत्तिकाल में अक्षर श्रुत में अन्तर्भाव हो जाता है। गाय जैसा गवय होता है, केवल सास्ना रहित है, इस उपमान
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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