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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 ज्ञान जुदा-जुदा हैं। मति और श्रुत में सम्यक् व्यपदेश युगपत् होता है न कि उत्पत्ति। दोनों की उत्पत्ति तो अपने-अपने कारणों से क्रमशः ही होती है। सभी प्राणियों के अपने-अपने श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार श्रुत की उत्पत्ति होती है। अत: मतिज्ञानपूर्वक होने पर भी सभी के श्रुतज्ञानों में विशेषता बनी रहती है। कारण भेद से कार्य भेद का नियम सर्वसिद्ध है। ऐसा भी प्रश्न खड़ा होता है कि कर्णेन्द्रिय का निमित्त पाकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं इसलिए दोनों का एकपना है। इसका निराकरण करते हुए आचार्य श्री विद्यानन्दि का कहना है कि कर्ण-इन्द्रिय को साक्षात् निमित्त मानकर श्रुतज्ञान का उत्पन्न होना असिद्ध है। श्रुतज्ञान का अनिन्द्रियवान् अर्थात् मन को निमित्त मानकर और प्रत्यक्ष से नहीं देखे गये सजातीय और विजातीय अनेक अर्थों का विचार करना रूप स्वभावों से सहितपने करके प्रसिद्धि हो रही है। विशेष यह है कि यद्यपि ईहा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही मन से होते हैं किन्तु जिस प्रकार ईहाज्ञान का निमित्तपना मन को प्राप्त है उस प्रकार का निमित्तपना मन में श्रुतज्ञान का नहीं है। केवल सामान्य रूप से उस मन का निमित्तपना तो मति और श्रुत के तादात्म्यपने का गमन हेतु नहीं है। आचार्य गुणधर स्वामी ने तो श्रुतज्ञान को कारण-कार्य दोनों ही कहा है उन्होंने कहा कि मतिज्ञानपवूक ही श्रुतज्ञान होता है सो भी कहना ठीक नहीं क्योंकि श्रुतज्ञान से भी श्रुतज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है। इसी को समझाते हुए आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं "घट शब्द को सुनकर प्रथम घट अर्थ का श्रुतज्ञान हुआ, उस श्रुत से जलधारणादि कार्यों का जो द्वितीय श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे श्रुतपूर्वक श्रुत होने से मतिपूर्वक नहीं कह सकते हैं। अत: लक्षण अव्याप्त हो जाता है। इसी तरह धूम अर्थ का ज्ञान प्रथम श्रुत हुआ उससे उत्पन्न होने वाले अविनाभावी अग्नि के ज्ञान में श्रुतपूर्वकत्व श्रुतत्व होने से मतिपूर्वक लक्षण अव्याप्त हो जाता है। ऐसी शंका करने वाले को समझना चाहिए कि लक्षण तो पूर्णरूप से निर्दुष्ट है क्योंकि प्रथम श्रुतज्ञान में मतिजन्य होने से 'मतिज्ञानत्व' का उपचार कर लिया जाता है और इस तरह द्वितीय श्रुत में भी मतिपूर्वकत्व सिद्ध हो जाता है। श्रुतज्ञान की उत्पत्ति आभिनिबोधकज्ञानपूर्वक भी कही गई है। अभिनिबोध अनुमान का नाम है। अनुमान मतिज्ञान का एक भेद है। इसलिए आभिनिबोधकज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है, ऐसा मानना यह दिखाता है कि श्रुतज्ञान स्वार्थानुमान पूर्वक होता है, परन्तु केवल ऐसा निश्चय कर लेना भी ठीक नहीं है क्योंकि ईहादि ज्ञानों के बाद भी श्रुतज्ञान का हो जाना संभव है। श्रुतज्ञान में जो मतिज्ञान को कारण माना जाता है, वह केवल इसलिए है कि किसी वस्तु के साधारण ज्ञान हुए बिना विशेषावभासी श्रुतज्ञान कैसे हो? अर्थात् श्रुतज्ञान के उत्पन्न करने में प्रथम उत्पन्न हुए मतिज्ञान के विषय का सहारा लेना पड़ता है। इतना ही नहीं यहां कार्य कारणपना है इसलिए आभिनिबोधक का अर्थ मतिज्ञान करना चाहिए।' स्पष्ट है कि मतिज्ञान श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त है इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके कहीं-कहीं अनुमान आदि का मतिज्ञान रूप में निर्देश किया गया है।
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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