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________________ 26 अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 और उसके बढ़ते-घटते संवेदी सूचकांकों के माध्यम से वाणिज्यिक गतिविधियों का नियमन होता रहता है। वाणिज्य कर्म सिर्फ लक्ष्मी अर्जित करने का सशक्त साधन ही नहीं प्रत्युत राजनीतिक संबन्धों की सुदृढ़ता के लिए अपरिहार्य शर्त बन गया है। आचार्य जिनसेन ने हस्तकौशल को शिल्प कर्म की संज्ञा दी है। हस्तकौशल के अन्तर्गत बढ़ई, लोहार, कुम्हार, चर्मकार, स्वर्णकार आदि के उपयोगी कला-कौशलों के अतिरिक्त चित्रकारी, फूल-पत्ते काढ़ने की कसीदाकारी भी इस श्रेणी में समाहित थे। शिल्पकर्म आज हेण्डीक्राफ्ट्स के माध्यम से प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था को तो प्रभावित कर ही रहा है साथ ही एक सांस्कृतिक राजदूत की भी भूमिका अदा कर रहा है। शिल्पकर्म के अर्थकरी स्वरूप को यदि हम देखें तो पिकासो के चित्रों की आकाश छूती कीमत एक प्रतीक मात्र है। भारतीय चित्रकारों में यामिनी राय, गुजराल, राजा रवि वर्मा, हुसैन आदि के चित्र ऊँची कीमतों पर तो बिकते ही हैं, ऐश्वर्यपूर्ण जीवन शैली के प्रतीक भी बन चुके आज भी ज्वलन्त समस्या है निरंकुश भोगवाद। उपभोक्तावादी संस्कृति ने विलासिता और आकांक्षाओं को नए पंख दे दिए हैं। अधिक अर्जन, अधिक संग्रह और अधिक भोग की मानसिकता ने नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है, इससे सामाजिक व्यवस्था में बिखराव आया है। वैयक्तिक अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ा गई है। तनावों, स्पर्धाओं और कुंठाओं ने भी जन्म लिया है। धन के अतिभाव और अभाव ने अमीर को अधिक अमीर बना दिया, गरीब और अधिक गरीब बनता गया। फलतः अपराधों ने जन्म ले लिया। जैन समाज में भी ऐसे लोग सामने आने लगे हैं। जिनकी सिर्फ यही सोच है कि 'मेरे पास वो सब कुछ होना चाहिए जो सबके पास हो मगर सबके पास वो नहीं होना चाहिए जो मेरे पास हो।' इस स्वार्थी, संकीर्ण सोच ने अपराधों को आमंत्रण दिया है। असंयम से जुड़ी इन आपराधिक समस्याओं को रोकने के लिए यदि अर्जन के साथ विसर्जन जुड़ जाए, अनावश्यक भोग पर अंकुश लग जाए, आवश्यकता, अनिवार्यता और आकांक्षा में फर्क समझ में आ जाए तो सटीक समाधान हो सकता है। धन के उपभोग का अर्थ है अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए धन का उपयोग उत्पादन आर्थिक क्रियाओं का साधन है जबकि उपभोग उन सबका अन्त। उपयोग की वस्तुएँ तीन भागों में विभक्त की जा सकती है जीवन की आवश्यकताएंआराम और भोगविलास। ज्यों-ज्यों भोगवादी संस्कृति का विकास होता गया, हमने पृथ्वी का अनुचित शोषण किया, जिस कारण अब कोयला, तेल आदि समाप्त हो रहे हैं। 21वीं सदी में जल का भी अभूतपूर्व संकट होने वाला है। जिसे जैन परंपरा में हम अपरिग्रह और संयम कहते हैं, वहीं आधुनिक विज्ञान में स्थायी विकास की बात है। स्थायित्व का अर्थशास्त्र बिना अपरिग्रह के संभव ही नहीं और भोगवाद पर बिना संयम के अंकुश लगाया ही नहीं जा सकता है। आधुनिक समय में भारत में जिस प्रकार राजधर्म के मूल्यों का आत्यन्तिक क्षरण
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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