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________________ अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 27 हो रहा है, जिस प्रकार राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण हो गया है, जब भ्रष्टाचार ही राजनीतिक जीवन में शिष्टाचार बन गया है, आज आदिपुराण में वर्णित प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभनाथ द्वारा प्रतिपादित राजधर्म की प्रासंगिकता अत्यधिक बढ़ गयी है। जब प्रजा भूख-प्यास एवं अराजक हिंसा से त्राहि-त्राहि करने लगे और नाभिराज प्रजा को वृषभनाथ के पास ले गये तो उनकी विह्वल दशा देखकर भगवान् की अन्तरात्मा द्रवीभूत हो उठी। उन्होंने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की व्यवस्था का स्मरण कर इस भरत क्षेत्र में वही व्यवस्था चालू करने का निश्चय किया। उन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प एवं व्यापार की शिक्षा दी और भोगभूमि, कर्मभूमि में परिणत हो गयी। आज अगर हम भगवान् ऋषभदेव के राजधर्म की ओर सर्वात्मना अपने को उनके शरण में अर्पण कर चलने का संकल्प ले लें तो वह जीवन का सर्वोदय दिवस और भारत भूमि का अभ्युदय पर्व होगा। जैन समाज की व्यावसायिक साधन-शुद्धि, प्रामाणिक मनोवृत्ति और सम्यग् दृष्टिकोण राष्ट्रीय चरित्र को सुदृढ़ता देगी, क्योंकि दीया एक भी जले मगर रोशनी का विश्वास तो होगा। राष्ट्रहित में जैन समाज और जैन श्रावक भगवान् आदिनाथ का अर्थशास्त्र समझे। अर्थार्जन की शुद्ध प्रक्रिया पर जागरूक बने। हमारी यह स्पष्ट मान्यता है कि अर्थ और भोग पर अंकुश लगना चाहिए। इसके लिए साधन-शुद्धि और भोग-संयमन पर ध्यान देना होगा। लोक कल्याण के लिए आयोजित किये जाने वाले विभिन्न उपक्रमों की सफलता अपेक्षित अधिक संसाधनों के अभाव में संभव नहीं है। इस प्रसंग में कर की व्यवस्था की आज भी प्रभावशाली भूमिका है। राजस्व के स्रोत के रूप में "कर" सुनिश्चित आधार प्रदान करते हैं। आदिपुराण के सिद्धान्तानुसार वस्तु में उपयोगिता का सृजन करना ही वस्तुओं का उत्पादन है। मनुष्य न तो नई वस्तुओं का निर्माण करता है और न ही किसी पुरानी वस्तु का विनाश करता है, वह केवल उपयोगिता का सृजन करता है। उपयोगिता के सृजन का नाम ही उत्पादन तथा उपभोग है। वस्तुओं की जैसे-जैसे उपयोगिता बढ़ती जाती है, उनका मूल्य भी वृद्धिंगत होता जाता है। मूल्य निर्धारण उपयोगिता के आधार पर ही किया जाता है। आदिपुराणकार ने रत्नों का उदाहरण देकर उपयोगितावाद को स्पष्ट किया है। रत्न तभी रत्न संज्ञा को प्राप्त होता है जब खान से निकलने के बाद उसमें उपयोगिता सृजित की जाती है। आर्थिक असमानता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह समाज के जीवन को अस्त-व्यस्त करने वाला है। इसी के कारण शोषण होता है। आर्थिक असमानता को मिटाने का उपाय है-अपरिग्रह। परिग्रह के निरोध हेतु परिमाण व्रत का प्रतिपादन किया गया है। वस्तुओं के प्रति ममत्व भाव को ही परिग्रह कहा गया है। अर्थार्जन धर्म संगत होना चाहिए, उसमें ममत्व न हो। जब ममत्व नहीं रहेगा तब उसे प्राप्त करने या रक्षण में अनुचित साधनों का उपयोग नहीं होगा, तभी वह व्यक्ति व समाज के लिए हितकर है। जैन पुराणों से भारत के आत्मनिर्भर ग्राम समुदाय की प्राचीनता एवं उनका
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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