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________________ २० अनेकान्त 64/2, अप्रैल-जून 2011 विज्ञान, विद्या, शिल्प का अवतरण। वे कृषिराज व कृषिदेव कहलाये। ऋषभदेव ने विश्व को स्वावलम्बन एवं आत्मनिर्भरता का उपदेश दिया। अपनी रक्षा भी आप करनी है इसलिए असि (असी धारण) का उपदेश, अपनी जीविका भी स्वयं उपस्थित करनी है, इसलिए कृषि का उपदेश, अपना ज्ञान भी स्वयं बढ़ाना है इसलिए मसि का उपदेश दिया गया। राजा नाभि के समय जब हा, मा, धिक् का प्रभाव समाप्त हो गया तो जनता के आग्रह पर नाभि ने उन्हें ऋषभ के पास भेजा। ऋषभ ने कहा- जब मर्यादा का उल्लंघन होता है तो शब्द शक्ति से काम नहीं होगा, राजशक्ति से ही होगा ज्ञानत्रयधरो जातिसारः स्वामीत्यवोचत। मर्यादोल्लंघिना राजा भवति शासिता॥ फिर तो लोगों ने ऋषभ से राजा बनने को कहा। लोकेच्छा का ध्यान रखते हुए नाभि ने ऋषभ को राजा बनाया, इस पर राजतंत्र का सूत्रपात हुआ। जैन परंपरा में आदि काल में तीर्थकर ही राजा हुए हैं। इस प्रकार राजा को धर्मगुरु का भी प्रभार रहने से उसका महत्त्व बढ़ गया लेकिन एक महत्त्व की बात यह हुई कि राजनीति राजधर्म बन गया। राजनीति में नैतिकता का प्राधान्य रहा। भारतीय ज्ञान परंपरा इस दृष्टि से भी विचारणीय है कि उसके तत्त्व आश्चर्यजनक रूप से मनुष्य और समग्र दृष्टि को संबोधित करते हैं। भूमण्डलीकरण के वर्तमान समय में जब परस्पर निर्भरता वैश्विक जीवन का मूल मंत्र बनती जा रही है, भारतीय जीवन दृष्टि और भी प्रासंगिक हो गयी है। स्मरणीय है कि भारतीय ज्ञान परंपरा मात्र शास्त्रीय नहीं है जैसा कि प्रायः प्रचलित किया गया है। शास्त्र के साथ वह लोक व्यवहार में भी अवस्थित है। शास्त्र और लोक दोनों एक दूसरे के साथ सम्पृक्त रहे हैं। जैन परम्परा में ऋषभ का राज शासन न्यूनतम सत्ता का प्रतीक है। जैसे-जैसे समस्यायें आती गईं, ऋषभदेव उनके समाधान ढूँढ़ते गए। इसी से सभ्यता का विकास होता गया। समाज के लिए इनका विकास सावध, इनमें आध्यात्मिक धर्म नहीं है। फिर भी अपने कर्तव्य को मुख्यता देकर ऋषभ ने लोकानुकंपा से उन कार्यों का प्रवर्तन किया। हेमचन्द्र ने कहा ही है एतच्च सर्व सावद्यमपि लोकानुकंपया। स्वामी प्रवर्तयामास, जानन् कर्तव्यमात्मनः॥ जब व्यक्ति कर्तव्य को ओढ़ लेता है और उसका निर्वहन नहीं करता तो समस्यायें पैदा होती हैं। ऋषभदेव ने राज्य शासन में अपना हित नहीं देखा, प्रजाहित देखा। संक्षेप में ऋषभराज रामराज्य या लोककल्याणकारी राज्य था। यानी उस समय सोलह आना समाजवाद था। ऋषभदेव या अन्य तीर्थकर केवल दंड देने के लिए ही राजा नहीं बने। उनकी राज्य व्यवस्था में अर्थ और पदार्थ का न अभाव होता था, न प्रभाव होता था। जिस समाज में अर्थ एवं पदार्थ का अभाव होगा वहां असंतोष एवं अराजकता होगी। जहाँ अर्थ एवं पदार्थ अत्यधिक होंगे वहाँ समाज का पतन होगा। एनलड रायनवी ने 27 सभ्यताओं का अध्ययन
SR No.538064
Book TitleAnekant 2011 Book 64 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2011
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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